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________________ १५८ उत्तराध्ययनसूत्र । [२६] तुम्हारा शरीर सब प्रकार से कृश हो रहा है, तुम्हारे (पूर्ववर्ती मनोहर काले) केश सफेद हो रहे हैं तथा (शरीर के) समस्त (अवयवों का) बल नष्ट हो रहा है। ऐसी स्थिति में, गौतम! समयमात्र का भी प्रमाद मत करो। २७. अरई गण्डं विसूइया आयंका विविहा फुसन्ति ते। विवडइ विद्धंसइ ते सरीरयं समयं गोयम! मा पमायए॥ [२७] (वातरोगादिजनित) उद्वेग (अरति), फोड़ा-फुसी, विसूचिका (हैजा-अतिसार आदि) तथा विविध प्रकार के अन्य शीघ्रघातक रोग (आतंक) तुम्हारे शरीर को स्पर्श (आक्रान्त) कर सकते हैं, जिनसे तुम्हारा शरीर विपद्ग्रस्त (शक्तिहीन) तथा विध्वस्त हो सकता है। इसलिए हे गौतम! समयमात्र का भी प्रमाद मत करो। विवेचनपंचेन्द्रियबल की क्षीणता का जीवन पर प्रभाव-श्रोत्रेन्द्रियबल क्षीण होने से मनुष्य धर्मश्रवण नहीं कर सकता और धर्मश्रवण के विना कल्याण-अकल्याण, श्रेय-प्रेय को जान नहीं सकता और ज्ञान के विना धर्माचरण अन्धा होता है, सम्यक्-धर्माचरण नहीं हो सकता। चक्षुरिन्द्रियबल क्षीण होने से जीवदया, प्रतिलेखना, स्वाध्याय, गुरुदर्शन आदि के रूप में धर्माचरण नहीं हो सकेगा। नासिका में गन्धग्रहणबल होने पर ही सुगन्ध-दुर्गन्ध के प्रति रागद्वेष का परित्याग करके समत्वधर्म का पालन किया जा सकता है, उसके अभाव में नहीं। जिह्वा में रसग्राहकबल तथा वचनोच्चारणबल होने पर क्रमशः रसास्वाद के प्रति राग-द्वेष के त्याग से तथा स्वाध्याय करने, वाचना देने, उपदेश एवं प्रेरणा देने से निर्दोष और सहज धर्माचरण कर सकता है, जबकि जिह्वाबल क्षीण होने पर ये सब नहीं हो सकते। इसी प्रकार स्पर्शेन्द्रियबल प्रबल हो तो शीत-उष्ण आदि परीषहों पर विजय तथा तप, संयम आदि के रूप में उत्तम धर्माचरण हो सकता है. अन्यथा इस धर्माचरण से साधक वंचित हो जाता है। इसी प्रकार जब तक सर्वबल -अर्थात-मन, वचन. काया. एवं समस्त अंगोपांगों में अपना-अपना कार्य करने की शक्ति विद्यमान है, तब तक साधक ध्यान, अनुप्रेक्षा, आत्मचिन्तन, स्वाध्याय, वाचना, उपदेश, भिक्षाचरी, प्रतिलेखन, तप, संयम त्याग आदि के रूप में स्वाख्यात धर्म का आचरण कर सकता है, अन्यथा नहीं। इसी प्रकार शरीर स्वस्थ न हो, दुःसाध्य व्याधियों तो भी निश्चिन्तता एवं निर्विघ्नता से धर्म का आचरण नहीं हो सकता। इसलिए गौतमस्वामी से भगवान् महावीर कहते हैं कि जब तक शरीर, इन्द्रियाँ, आदि स्वस्थ, सशक्त और कार्यक्षम हैं, तब तक रत्नत्रय-धर्माराधना में एक क्षण भी प्रमाद न करो। ___ 'आयंका विविहा फुसंति ते' का आशय- यद्यपि श्री गौतमस्वामी के शरीर में कोई रोग, पीड़ा या व्याधि नहीं थी और न उनकी इन्द्रियों की शक्ति क्षीण हुई थी, तथापि भगवान् ने सम्भावना व्यक्त करके उनके आश्रय के समस्त साधकों को अप्रमाद का उपदेश दिया है। अप्रमाद में बाधक तत्त्वों से दूर रहने का उपदेश २८. वोच्छिन्द सिणेहमप्पणो कुमुयं सारइयं व पाणियं। से सव्वसिणेहवज्जिए समयं गोयम! मा पमायए॥ १. (क) उत्तरा० प्रियदर्शिनीवृत्ति, पृ० ४९६ से ५०१ तक (ख) बृहवृत्ति, पत्र ३३८ २. यद्यपि केशपाण्डुरत्वादि गौतमे न सम्भवति, तथापि तत्रिश्रयाऽशेषशिष्यबोधनार्थत्वाददुष्टम्।-१० वृत्ति, पत्र ३३८
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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