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________________ दसमं अज्झयणं : दुमपत्तयं दशम अध्ययन : द्रुमपत्रक मनुष्यजीवन की नश्वरता, अस्थिरता और अप्रमाद का उद्बोधन १. दुमपत्तए पंडुयए जहा निवडइ राइगणाण अच्चए। एवं मणयाण जीवियं समयं गोयम! मा पमायए॥ [१] जैसे रात्रि-दिवसों का समूह (समय) बीतने पर वृक्ष का पका (सूखा) हुआ सफेद पत्ता गिर जाता है, इसी प्रकार मनुष्यों (उपलक्षण से सर्वप्राणियों) का जीवन है। अत: हे गौतम ! समय (क्षण) मात्र का भी प्रमाद मत कर। २. कुसग्गे जह ओसबिन्दुए थोवं चिट्ठइ लम्बमाणए। एवं मणुयाण जीवियं समयं गोयम! मा पमायए।। ___ [२] जैसे कुश के अग्रभाग पर लटकता हुआ ओस का बिन्दु थोड़े समय तक ही (लटका) रहता है; इसी प्रकार मनुष्यों का जीवन भी क्षणभंगुर है। अतः हे गौतम! समयमात्र का भी प्रमाद मत कर। ३. इइ इत्तरियम्मि आउए जीवियए बहुपच्चावायए। विहुणाहि रयं पुरे कडं समयं गोयम ! मा पमायए।। [३] इस प्रकार स्वल्पकालीन आयुष्य में तथा अनेक विघ्नों (-विष, अग्नि, जल, शस्त्र, अत्यन्त हर्ष, शोक आदि जीवनविघातक कारणों) से प्रतिहत (सोपक्रम आयु वाले) जीवन में ही पूर्वसंचित (ज्ञानावरणीयादि) (कर्म-) रज को दूर कर। गौतम ! समयमात्र का भी प्रमाद मत कर। विवेचन - जीवन की अस्थिरता : दो उपमाओं से उपमित - (१) प्रथम गाथा में जीवन की अस्थिरता को पके हुए द्रुमपत्र से उपमित किया गया है। नियुक्तिकार ने पके हुए पत्ते और नये पत्ते (कोंपल) का उद्बोधक संवाद प्रस्तुत किया है - पके हुए पत्ते ने नये पत्तों से कहा - 'एक दिन हम भी वैसे थे, जैसे आज तुम हो; और एक दिन तुम भी वैसे ही हो जाओगे, जैसे कि आज हम हैं।' आशय यह है कि जिस प्रकार पका हुआ पत्ता एक दिन वृक्ष से टूट कर गिर पड़ता है, वैसे ही आयुष्य के दलिक भी रात्रि-दिवस व्यतीत होने के साथ क्रमशः कम (निर्जीर्ण) होते-होते एक दिन सर्वथा क्षीण हो जाते हैं। छद्मस्थ को इसका पता नहीं चलता कि कब आयुष्य समाप्त हो जाएगा। अतः एक क्षण भी किसी प्रकार का प्रमाद (मद्य-विषय-कषाय-निद्रा-विकथादि रूप) नहीं करना चाहिए। (२) द्वितीय गाथा में कुश की नोक पर टिके हुए ओस के बिन्दु से मनुष्य-जीवन की अस्थिरता को उपमित किया गया है। 'इइ इत्तरियम्मि आउए०' - इस पंक्ति का आशय यह है कि आयुष्य दो प्रकार का है - (१) निरुपक्रम (बीच में न टूटने वाला) और (२) सोपक्रम। निरुपक्रम आयुष्य, भले ही बीच में टूटता न हो,
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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