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दशम अध्ययन
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द्रुमपत्रक
भगवान् ने कहा - 'गौतम! स्नेह चार प्रकार के होते हैं - सोंठ के समान, द्विदल के समान, चर्म के समान और ऊर्णाकट के समान । चिरकाल के परिचय के कारण तुम्हारा मेरे प्रति ऊर्णाकट जैसा स्नेह है । इस कारण तुम्हें केवलज्ञान नहीं होता। जो राग स्त्री- पुत्र -धनादि के प्रति होता है, वही राग तीर्थंकर देव, गुरु और धर्म के प्रति हो तो वह प्रशस्त होता है, फिर भी वह यथाख्यातचारित्र का प्रतिबन्धक है। सूर्य के बिना जैसे दिन नहीं होता, वैसे ही यथाख्यातचारित्र के बिना केवलज्ञान नहीं होता। इसलिए जब मेरे प्रति तुम्हारा राग नष्ट होगा तब तुम्हें अवश्य ही केवलज्ञान होगा । यहाँ से च्यव कर हम दोनों ही एक ही अवस्था को प्राप्त होंगे, अतः अधैर्य न लाओ।'
इस प्रकार भगवान् ने गौतम तथा अन्य साधकों को लक्ष्य में रखकर प्रमाद-त्याग का उद्बोधन करने हेतु 'द्रुमपत्रक' नामक यह अध्ययन कहा है।
* इस अध्ययन में भगवान् महावीर ने गौतमस्वामी को सम्बोधित करके ३६ वार समयमात्र का प्रमाद न करने के लिए कहा है। इसका एक कारण तो यह है कि गौतमस्वामी को भगवान् महावीर की वाणी पर अटूट विश्वास था । वे सरल, सरस, निश्छल अन्तःकरण के धनी थे । श्रेष्ठता के किसी भी स्तर पर कम नहीं थे। उनका तप, संयम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र अनुपम था। तेजस्वी एवं सहज तपस्वी जीवन था उनका । भगवान् के प्रति उनका परम प्रशस्त अनुराग था। अतः सम्भव है, गौतम ने दूसरों लिए कुछ प्रश्न किये हों और भगवान् ने सभी साधकों को लक्ष्य में रख कर उत्तर दिया हो। जैन आगम प्रायः गौतम की जिज्ञासाओं और भ. महावीर के समाधानों से व्याप्त हैं । चूंकि पूछा गौतम ने है, इसलिए भगवान् ने गौतम को ही सम्बोधन किया है। इसका अर्थ है - सम्बोधन केवल गौतम को है, उद्बोधन सभी के लिए है।
* दूसरा कारण संघ में सैकड़ों नवदीक्षित और पश्चात् दीक्षित साधुओं को (उपर्युक्त घटनाद्वय के अनुसार) सर्वज्ञ - सर्वदर्शी होते देख, गौतम का मन अधीर और विचलित हो उठा हो । अतः भगवान् ने उन्हें ही सुस्थित एवं जागृत करने के लिए विशेष रूप से सम्बोधित किया हो; क्योंकि उन्हें लक्ष्य करके जीवन की अस्थिरता, नश्वरता, मनुष्यजन्म की दुर्लभता, अन्य उपलब्धियों की दुष्करता, शरीर तथा पंचेन्द्रिय बल की क्षीणता का उद्बोधन करने के बाद ९ गाथाओं में स्नेहत्याग की, परित्यक्त धन-परिजनादि के पुनः अस्वीकार की, वर्तमान में उपलब्ध न्यायपूर्ण पथ पर तथा कण्टकाकीर्ण पथ छोड़ कर स्पष्ट राजपथ पर दृढ़ निश्चय के साथ चलने की प्रेरणा, विषममार्ग पर चलने से पश्चात्ताप की चेतावनी, महासागर के तट पर ही न रुक कर इसे शीघ्र पार करने का अनुरोध, सिद्धिप्राप्ति का आश्वासन, प्रबुद्ध, उपशान्त, संयत, विरत एवं अप्रमत्त होकर विचरण करने की प्रेरणा दी है । २
* समग्र अध्ययन में प्रमाद से विरत होकर अप्रमाद के राजमार्ग पर चलने का उद्घोष है।
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१. उत्तराध्ययननिर्युक्ति, गा. १९ से ४१ तक
२. उत्तराध्ययन मूल, गा. १ से ३६ तक