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नवम अध्ययन : नमिप्रव्रज्या
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[५९] इस प्रकार उत्तम श्रद्धा से राजर्षि की स्तुति तथा प्रदक्षिणा करते हुए शक्रेन्द्र ने पुनः पुनः वन्दना की।
६०. तो वन्दिऊण पाए चक्कंकुसलक्खणे मुणिवरस्स । गाणुओ
ललियचवलकुंडलतिरीडी ॥
[६०] तदनन्तर नमि मुनिवर के चक्र और अंकुश के लक्षणों (चिह्नों) युक्त चरणों में वन्दन करके ललित एवं चपल कुण्डल और मुकुट का धारक इन्द्र आकाशमार्ग से उड़ गया (स्वस्थान में चला गया) ।
विवेचन इन्द्र के द्वारा राजर्षि की स्तुति का कारण - इन्द्र ने सर्वप्रथम नमि राजर्षि से यह कहा था कि 'आप पहले उद्धत राजवर्ग को जीतें, बाद में दीक्षा लें,' इससे राजर्षि का चिन्त जरा भी क्षुब्ध नहीं हुआ । इन्द्र को ज्ञात हो गया कि आपने क्रोध को जीत लिया है तथा जब इन्द्र ने कहा कि आपका अन्तःपुर एवं राजभवन जल रहा है, तब मेरे जीवित रहते मेरा अन्तःपुर एवं राजभवन आदि जल रहे हैं, क्या मैं इसकी रक्षा नहीं कर सकता? इस प्रकार राजर्षि के मन में जरा-सा भी अहंकार उत्पन्न न हुआ। तत्पश्चात् जब इन्द्र ने राजर्षि को तस्करों, दस्युओं आदि का निग्रह करने के लिए प्रेरित किया, तब आपने जरा भी न छिपा कर निष्कपट भाव से कहा कि मैं कैसे पहचानूं कि यह वास्तविक अपराधी है, यह नहीं? इसलिए दूसरों का निग्रह करने की अपेक्षा मैं अपनी दोषदुष्ट आत्मा का ही निग्रह करता हूँ। इससे उनमें माया पर विजय का स्पष्ट लक्षण प्रतीत हुआ। जब इन्द्र ने यह कहा कि आप पहले हिरण्य-सुवर्ण आदि बढ़ा कर, आकांक्षाओं को शान्त करके दीक्षा लें, तो उन्होंने कहा कि आकांक्षाएँ अनन्त, असीम हैं, उनकी तृप्ति कभी नहीं हो सकती। मैं तप-संयम के आचरण से निराकांक्ष होकर ही अपनी इच्छाओं को शान्त करने जा रहा हूँ। इससे इन्द्र को उनमें लोभविजय की स्पष्ट प्रतीति हुई । इसीलिए इन्द्र ने आश्चर्य व्यक्त किया कि राजवंश में उत्पन्न होकर भी आपने कषायों को जीत लिया। इसके अतिरिक्त इन्द्र को अपने द्वारा प्रस्तुत प्रश्नों के राजर्षि द्वारा किये समाधान में भी सर्वत्र उनकी सरलता, मृदुता, क्षमा, निर्लोभता आदि साधुता के उज्ज्वल गुणों के दर्शन हुए । इसलिए इन्द्र ने उनकी साधुता का बखान किया तथा यहाँ और परलोक में भी उनके उत्तम होने और सर्वोत्तम सिद्धिस्थान प्राप्त करने की भविष्यवाणी की। अन्त में पूर्ण श्रद्धा से उनके चरणों में बारबार वन्दना की।
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तिरीडी - किरीटी सामान्यतया किरीट और मुकुट दोनों पर्यायवाची बृहद्वृत्ति में तिरीटी का अर्थ मुकुटवान् ही किया है, किन्तु सूत्रकृतांगचूर्णि में उसे 'मुकुट' और जिसके चौरासी शिखर हों, उसे 'तिरीट' या 'किरीट' कहा किरीट हो, उसे किरीटी कहते हैं । २
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१. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३१८-३१९
(ख) उत्तरा प्रियदर्शिनीटीका, भा. २, पृ. ४५५
शब्द माने जाते हैं, अतः
जिसके तीन शिखर हों,
गया है। जिसके सिर पर
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२. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३१९
(ख) सूत्रकृतांगणचूर्णि, पृ. ३६० - तिहिं सिहरेहिं मउडो वुच्चति, चतुरसीहिं तिरीडं । '