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उत्तराध्ययनसूत्र
कामभोगों की अभिलाषा, सर्वथा त्याज्य है। आपने अविद्यमान भोगों के इच्छाकर्ता को प्राप्तकामभोगों का त्यागी नहीं माना, यह हेतु असिद्ध है। क्योंकि मैं मोक्षाभिलाषी हूँ, मोक्षाभिलाषी के लेशमात्र भी कामाभिलाषा होना अनुचित है। इसलिए कामभोग ही नहीं, विद्यमान-अविद्यमान कामभोगों की अभिलाषा मैं नहीं करता।
अब्भुदए भोए : तीन रूप : तीन अर्थ - (१) अद्भुतकान् भोगान् – आश्चर्यरूप भोगों को, (२) अभ्युद्यतान् भोगासन् – प्रत्यक्ष विद्यमान भोगों को (३) अभ्युदये भोगान् – इतना धन, वैभव, यौवन, प्रभुत्व आदि का अभ्युदय (उन्नति) होते हुए भी (सहजप्राप्त) भोगों को।
संकप्पेण विहन्नसि - आप संकल्पों (अप्राप्त कामभोगों की प्राप्ति की अभिलाषारूप विकल्पों) से विशेषरूप से ठगे जा रहे हैं या बाधित - उत्पीड़ित हो रहे हैं।३ देवेन्द्र द्वारा असली रूप में स्तुति, प्रशंसा एवं वन्दना
५५. अवउज्झिऊण माहणरूवं विउव्विऊण इन्दत्तं।
वन्दइ अभित्थुणन्तो इमाहि महुराहिं वग्गूहिं - ॥ [५५] देवेन्द्र, ब्राह्मण रूप को छोड़ कर अपनी वैक्रियशक्ति से अपने वास्तविक इन्द्र के रूप को प्रकट करके इन मधुर वचनों से स्तुति करता हुआ (नमि राजर्षि को) वन्दना करता है -
५६. 'अहो! ते निजिओ कोहो अहो! ते माणो पराजिओ।
__ अहो! ते निरक्किया माया अहो! ते लोभो वसीकओ॥' [५६] अहो! आश्चर्य है - आपने क्रोध को जीत लिया है, अहो! आपने मान को पराजित किया है, अहो! आपने माया को निराकृत (दूर) कर दिया है, अहो! आपने लोभ को वश में कर लिया है।
५७. अहो! ते अजवं साहु अहो! ते साहु मद्दवं।
__अहो! ते उत्तमा खन्ती अहो! ते मुत्ति उत्तमा॥ [५७] अहो! आपका आर्जव (सरलता) उत्तम है, अहो! उत्तम है आपका मार्दव (कोमलता), अहो! उत्तम है आपकी क्षमा, अहो! उत्तम है आपकी निर्लोभता।
५८. इहं सि उत्तमो भन्ते ! पेच्चा होहिसि उत्तमो।
लोगुत्तमुत्तमं ठाणं सिद्धिं गच्छसि नीरओ॥ [५८] भगवन् ! आप इस लोक में भी उत्तम हैं और परलोक में भी उत्तम होंगे; क्योंकि कर्म-रज से रहित होकर आप लोक में सर्वोत्तम स्थान – सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त करेंगे।
५९. एवं अभित्थुणन्तो रायरिसिं उत्तमाए सद्धाए।
पयाहिणं करेन्तो पुणो पुणो वन्दई सक्को॥ १. (क) बृहवृत्ति, पत्र ३१७ (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. २, पृ. ४५१ २. बृहद्वृत्ति, पत्र ३१७ ३. (क) वही, पत्र ३१७ (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. २, पृ. ४४७