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उत्तराध्ययनसूत्र
श्रामण्य में सुस्थित नमि राजर्षि और उनके दृष्टान्त द्वारा उपदेश
६१. नमी नमेइ अप्पाणं सक्खं सक्केण चोइओ।
चइऊण गेहं वइदेही सामण्णे पज्जुवट्ठिओ। [६१] नमि राजर्षि ने (इन्द्र द्वारा स्तुति-वन्दना होने पर गर्व त्याग करके) भाव से अपनी आत्मा को (आत्मतत्त्व भावना से) विनत किया। साक्षात् देवेन्द्र के द्वारा प्रेरित होने पर भी (श्रमणधर्म से विचलित न होकर) गृह और वैदेही (-विदेहदेश की राजधानी मिथिला अथवा विदेह की राज्यलक्ष्मी) को त्याग कर श्रामण्यभाव की आराधना में तत्पर हो गए।
६२. एवं करेन्ति संबुद्धा पंडिया पवियक्खणा। विणियट्टन्ति भोगेसु जहा से नमी रायरिसी॥
–त्ति बेमि। [६२] जो सम्बुद्ध (तत्त्वज्ञ), पण्डित (शास्त्र के अर्थ का निश्चय करने वाले) और प्रविचक्षण (अतीव अभ्यास के कारण प्रवीणता प्राप्त) हैं, वे भी इसी (नमि राजर्षि की) तरह (धर्म में निश्चलता) करते हैं ! तथा कामभोगों से निवृत्त होते हैं; जैसे कि नमि राजर्षि।
___ - ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन–नमेइ अप्पाणं : दो व्याख्या-(१) भावतः आत्मा को स्वतत्त्वभावना से विनत किया, (२) नमि ने आत्मा को नमाया-संयम के प्रति समर्पित कर दिया-झुका दिया।
वइदेही—दो अर्थ-(१) जिसका विदेह नाम जनपद है, वह वैदेही, विदेहजनपदाधिप । (२) विदेह में होने वाली वैदेही—मिथिला नगरी।
। नमिप्रव्रज्या : नवम अध्ययन समाप्त ।।
१. बृहवृत्ति, पत्र ३२०