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________________ नवम अध्ययन : नमिप्रव्रज्या १४१ किन्तु इस शास्त्रवाक्य का अभिप्राय यह है कि योग्य पात्र को दान देना यद्यपि पुण्यजनक है, तथापि वह दान संयम के समान श्रेष्ठ नहीं है। संयम उसकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। क्योंकि दान से तो परिमित प्राणियों का ही उपकार होता है, किन्तु संयमपालन करने में सर्वसावध से विरति होने से उसमें षट्काय (समस्त प्राणियों) की रक्षा होती है। इस कथन से दान की पुण्यजनकता सिद्ध होती है, क्योंकि यदि दान पुण्यजनक न होता तो संयम उसकी अपेक्षा श्रेष्ठ है, यह कथन असंगत हो जाता। तीर्थंकर भी दीक्षा लेने से पूर्व एक वर्ष तक लगातार दान देते हैं। तीर्थंकरों द्वारा प्रदत्त दान महापुण्यवर्द्धक है, मगर उसकी अपेक्षा भी अकिंचन बन कर संयमपालन करना अत्यन्त श्रेयस्कर है, यह बताना ही तीर्थंकरों के दान का रहस्य है। १ ।। यज्ञ आदि प्रेय हैं, सावध हैं, क्योंकि उनमें पशुवध होता है, स्थावरजीवों की भी हिंसा होती है और भोग भी सावध ही हैं, इसलिए जो सावध है, वह प्राणिप्रीतिकारक नहीं होता, जैसे हिंसा आदि। यज्ञ आदि सावध होने से प्राणिप्रीतिकर नहीं हैं। नमि राजर्षि का आशय यह है कि दान-यज्ञादि में संयम श्रेयस्कर है, इसलिए दानादि अनुष्ठान किये बिना ही मेरे द्वारा संयमग्रहण करना अनुचित नहीं है। अष्टम प्रश्नोत्तर : गृहस्थाश्रम में ही धर्मसाधना के सम्बन्ध में ४१. एयमढें निसामित्ता हेउकारण- चोइओ। तओ नमिं रायरिसिं देविन्दो इणमब्बवी-॥ [४१] (राजर्षि के) इस वचन को सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित होकर देवेन्द्र ने नमि राजर्षि से इस प्रकार कहा ४२. 'घोरासमं चइत्ताणं अन्नं पत्थेसि आसमं। __ इहेव पोसहरओ भवाहि मणुयाहिवा!॥' [४२] हे मानवाधिप! आप घोराश्रम अर्थात् – गृहस्थाश्रम का त्याग करके अन्य आश्रम (संन्यासाश्रम) को स्वीकार करना चाहते हो ; (यह उचित नहीं है।) आप इस (गृहस्थाश्रम) में ही रहते हुए पौषधव्रत में तत्पर रहें। ४३. एयमढं निसामित्ता हेउकारण-चोइओ। ___ तओ नमी रायरिसी देविन्दं इणमब्बवी-॥ [४३] (देवेन्द्र की) यह बात सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार कहा१. उत्तरा, प्रियदर्शिनीटीका, भा. २, पृ. ४२५-४२६ २. गोदानं चेह यागाद्युपलक्षणम्, अतिप्रभूतजनाचरितमित्युपात्तम्। एवं च संयमस्य प्रशस्यतरत्वमभिदधता यागादीनां सावद्यत्वमर्थादावेदितम् । तथा च यज्ञप्रणेतृभिरुक्तम् - षट्शतानि नियुज्यन्ते पशूनां मध्यमेऽहनि। अश्वमेधस्य वचनान्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः।। इयत्पशुवधे कथमसावधतानाम? ....... भोगानां तु सावधत्वं सुप्रसिद्धम् । तथा च प्राणिप्रीतिकरत्वादित्यसिद्धो हेतु:यत्सावा, न तत्प्राणिप्रीतिकरम् यथा हिंसादि। सावधानि च योगादीनि। - बृहवृत्ति, पत्र ३१५
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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