SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४२ उत्तराध्ययनसूत्र ४४. 'मासे मासे तु जो बालो कुसग्गेणं तु भुंजए। न सो सुयक्खायधम्मस्स कलं अग्घइ सोलसिं॥' [४४] जो बाल (अज्ञानी) साधक महीने-महीने का तप करता है और पारणा में कुश के अग्रभाग पर आए, उतना ही आहार करता है, वह सुआख्यात धर्म (सम्यक्चारित्ररूप मुनिधर्म) की सोलहवीं कला को भी नहीं पा सकता। विवचेन–घोराश्रम का अर्थ यहाँ गृहस्थाश्रम किया गया है। वैदिकदृष्टि से गृहस्थाश्रम को घोर अर्थात्-अल्प सत्त्वों के लिए अत्यन्त दुष्कर, दुरनुचर, कठिन इसलिए बताया गया है कि इसी आश्रम पर शेष तीन आश्रम आधारित हैं । ब्रह्मचर्याश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम, इन तीनों आश्रमों का परिपालक एवं रक्षक गृहस्थाश्रम है। गृहस्थाश्रमी पर इन तीनों के परिपालन का दायित्व आता है, स्वयं अपने गार्हस्थ्य जीवन को चलाने और निभाने का दायित्व भी है तथा कृषि, पशुपालन, वाणिज्य, न्याय, सुरक्षा आदि गृहस्थाश्रम की साधना अत्यन्त कष्ट-साध्य है, जबकि अन्य आश्रमों में न तो दूसरे आश्रमों के परिपालन की जिम्मेदारी है और न ही स्त्री-पुत्रादि के भरण-पोषण की चिन्ता है और न कृषि, पशुपालन, वाणिज्य, न्याय सुरक्षा आदि का दायित्व है। इस दृष्टि से अन्य आश्रम इतने कष्टसाध्य नहीं हैं। महाभारत में बताया गया है कि जैसे सभी जीव माता का आश्रय लेकर जीते हैं, वैसे ही गृहस्थाश्रम का आश्रय लेकर सभी जीते हैं। मनुस्मृति में भी गृहस्थाश्रम को ज्येष्ठाश्रम कहा गया है। चूर्णिकार ने इसी आशय को व्यक्त किया है कि प्रव्रज्या पालन करना तो सुखसाध्य है, किन्तु गृहस्थाश्रम का पालन दुःखसाध्य - कठिन है। देवेन्द्र-कथित हेतु और कारण - धर्मार्थी पुरुष को गृहस्थाश्रम का सेवन करना चाहिए, क्योंकि वह घोर है, अर्थात् संन्यास की अपेक्षा गृहस्थाश्रम घोर है, जैसे अनशनादि तप। उसे छोड़ कर संन्यासाश्रम में जाना उचित नहीं। यह हेतु और कारण है। राजर्षि के उत्तर का आशय - घोर होने मात्र से कोई कार्य श्रेष्ठ नहीं हो जाता। बालतप करने वाला तपस्वी पंचाग्नितप, कंटकशय्याशयन आदि घोर तप करता है, किन्तु वह सर्वसावधविरति रूप मुनिधर्म (संयम) की तुलना में नहीं आता, यहाँ तक कि वह उसके सोलहवें हिस्से के बराबर भी नहीं है। अतः जो स्वाख्यातधर्म नहीं है, वह घोर हो तो भी धर्मार्थी के लिए अनुष्ठेय – आचरणीय नहीं है, जैसे आत्मवध आदि। वैसे ही गृहस्थाश्रम है, क्योंकि गृहस्थाश्रम का घोर रूप सावध होने से मेरे लिए हिंसादिवत् त्याज्य है। आशय यह है कि धर्मार्थी के लिए गृहस्थाश्रम घोर होने पर भी स्वाख्यातधर्म नहीं है, उसके लिए स्वाख्यातधर्म ही आचरणीय १. (क) घोरः अत्यन्तं दुरनुचरः, स चासौ आश्रमश्च घोराश्रमो गार्हस्थ्यं, तस्यैवाल्पसत्त्वैर्दुष्करत्वात् । यत आहुः - 'गृहस्थाश्रमसमो धर्मो, न भूतो, न भविष्यति। पालयन्ति नराः शूराः, क्लीबाः पाखण्डमाश्रिताः ।। अन्यमेतद् व्यतिरिक्तं कृषि पशुपाल्याद्यशक्तकातरजनाभिनन्दितं .......।' - बृहवृत्ति, पत्र ३१५ (ख) 'यथा मातरमाश्रित्य सर्वे जीवन्ति जन्तवः। तथा गृहस्थाश्रमं प्राप्य सर्वे जीवन्ति चाश्रमाः।।' - महाभारत-अनुशासन पर्व, अ. १५१ (ग) 'तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही।' - मनुस्मृति ३/७८ (घ) 'आश्रयन्ति तमित्याश्रयाः का भावना? सुखं हि प्रव्रज्या क्रियते, दुःखं गृहाश्रम अति, तं हि सर्वाश्रमास्तर्कयन्ति।' - उत्त. चूर्णि, पृ. १८४ २. बृहवृत्ति, पत्र ३१५
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy