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उत्तराध्ययनसूत्र
सप्तम प्रश्नोत्तर : यज्ञ, ब्राह्मणभोजन, दान और भोग करके दीक्षाग्रहण के सम्बन्ध में
३७. एयमढं निसामित्ता हेउकारण - चोइओ।
तओ नमिं रायरिसिं देविन्दो इणमब्बवी-॥ [३७] (नमि राजर्षि की) इस उक्ति को सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने नमि राजर्षि से इस प्रकार कहा
३८. 'जेइत्ता विउले जन्ने भोइत्ता समणमाहणे।
दच्चा भोच्चा य जिट्ठा य तओ गच्छसि खत्तिया!॥ [३८] हे क्षत्रिय! पहले (ब्राह्मणों द्वारा) विपुल यज्ञ करा कर, श्रमणों और ब्राह्मणों को भोजन करा कर तथा (ब्राह्मणादि को गौ, भूमि, स्वर्ण आदि का) दान देकर, (मनोज्ञ शब्दादि भोगों का) उपभोग कर एवं (स्वयं) यज्ञ करके फिर (दीक्षा के लिए) जाना।
३९. एयमढें निसामित्ता हेउकारण- चोइओ।
तओ नमी रायरिसी देविन्दं इणमब्बवी-॥ [३९] इस (अनन्तरोक्त) अर्थ को सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से यह कहा
४०. 'जो सहस्सं सहस्साणं मासे मासे गवं दए।
तस्सावि संजमो सेओ अदिन्तस्स वि किंचण॥' [४०] जो व्यक्ति प्रतिमास दस लाख गायों का दान करता है, उसका भी (कदाचित् चारित्रमोहनीय का क्षयोपशम हो तो) संयम (ग्रहण करना) श्रेयस्कर-कल्याणकारक है, (भले ही) वह (उस अवस्था में) (किसी को) कुछ भी दान न देता हो।
विवेचन- देवेन्द्र-कथित हेतु और कारण - यज्ञ, दान आदि धर्मजनक हैं, क्योंकि ये प्राणियों के लिए प्रीतिकारक हैं। जो जो कार्य प्राणिप्रीतिकारक होते हैं, वे-वे धर्मजनक हैं, जैसे प्राणातिपात-विरमण आदि; यह हेतु है और यज्ञादि में प्राणिप्रीतिकरता धर्मजनकत्व के बिना नहीं होती; यह कारण है। इन्द्र के कथन का आशय है कि आप जब तक यज्ञ नहीं करते-कराते, गो आदि का दान स्वयं नहीं देते-दिलाते तथा श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन नहीं कराते और स्वयं शब्दादि विषयों का उपभोग नहीं करते, तब तक आपका दीक्षित होना अनुचित है।
राजर्षि द्वारा प्रदत्त उत्तर का आशय - ब्राह्मणवेषी इन्द्र ने राजर्षि के समक्ष ब्राह्मण-परम्परा में प्रचलित यज्ञ, ब्राह्मणभोजन, दान और भोग-सेवन, ये चार विषय प्रस्तुत किये थे, जबकि राजर्षि ने उनमें से केवल एक दान का उत्तर दिया है, शेष प्रश्नों के उत्तर उसी में समाविष्ट हैं। दस लाख गायों का दान प्रतिमास देने वाले की अपेक्षा किञ्चित भी दान न देने वाले व्यक्ति का संयमपालन श्रेयस्कर है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अन्न-वस्त्रादि का दान पापजनक है या योग्य पात्र को इनका दान नहीं करना चाहिए, १. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३१५ (ख) उत्तरा, प्रियदर्शिनीटीका, भा. २, पृ. ४२४