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नवम अध्ययन : नमिप्रव्रज्या
३४. 'जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज्ज अप्पाणं एस से परमो जओ ॥'
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[३४] जो दुर्जय (जहाँ विजयप्राप्ति दुष्कर हो, ऐसे ) संग्राम में दस लाख सुभटों को जीतता है; (उसकी अपेक्षा जो ) एक आत्मा को (विषय- कषायों में प्रवृत्त अपने आपको ) जीत ( वश में कर) लेता है, उस (आत्मजयी) की यह विजय ही उत्कृष्ट (परम) विजय है।
३५. अप्पाणमेव जुज्झाहि किं ते जुज्झेण बज्झओ ? अप्पाणमेव अप्पाणं जड़त्ता सुहमेहए - ॥
[३५] अपने आपके साथ युद्ध करो, तुम्हें बाहरी युद्ध (राजाओं आदि के साथ युद्ध) करने से क्या लाभ?, (क्योंकि मुनि विषयकषायों में प्रवृत्त) आत्मा को आत्मा द्वारा जीत कर ही ( शाश्वत स्ववश मोक्ष) सुख को प्राप्त करता है ।
३६. पंचिन्दियाणि कोहं माणं मायं तहेव लोहं च । दुज्जयं चेव अप्पाणं सव्वं अप्पे जिए जियं । ।
दुर्ज
[३६] (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु एवं श्रोत्र, ये पांच इन्द्रियाँ, क्रोध, मान, माया और लोभ तथा मन ( मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग से दूषित मन); ये सब एक ( अकेले अपने ) आत्मा को जीत लेने पर जीत लिये जाते हैं ।
विवेचन - इन्द्र द्वारा कथित हेतु और कारण - आपको उद्दण्ड और नहीं झुकने वाले राजाओं को नमन कराना (झुकाना ) चाहिए, क्योंकि आप सामर्थ्यवान् नराधिप क्षत्रिय हैं। जो सामर्थ्यवान् नराधिपति होते हैं, वे उद्दण्ड राजाओं को नमन कराने वाले होते हैं, जैसे भरत आदि नृप; यह हेतु है । सामर्थ्य होने पर भी उद्दण्ड राजाओं को नहीं झुकाते, इसलिए आपमें नराधिपत्व एवं क्षत्रियत्व घटित नहीं हो सकता, यह कारण है। अतः राजाओं को जीते बिना आपका प्रव्रजित होना अनुचित है । १
नाम राजर्षि के उत्तर का आशय - बाह्य शत्रुओं को जीतने से क्या लाभ? क्योंकि उससे सुख प्राप्ति नहीं हो सकती, पंचेन्द्रिय, क्रोधादिकषाय एवं दुर्जय मन आदि से युक्त दु:खहेतुक एक आत्मा को जीत लेने पर सभी जीत लिये जाते हैं, यह विजय ही शाश्वत सुख का कारण है । अतः मुमुक्षु आत्मा द्वारा शाश्वतसुखविघातक कषायादि युक्त आत्मा ही जीतने योग्य है। अतः मैं बाह्य - -शत्रुओं पर विजय की उपेक्षा करके आत्मा को जीतने में
२ प्रवृत्त हूँ।
दुज्जयं चेव अप्पाणं—दो व्याख्याएँ – (१) दुर्जय आत्मा अर्थात् मन; जो अनेकविध अध्यवसायस्थानों में सतत गमन करता है, वह आत्मा — मन ही । अथवा (२) आत्मा (जीव) ही दुर्जय है। इस आत्मा के जीत लेने पर सब बाह्य शत्रु जीत लिये जाते हैं । ३
१. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३१४
(ख) उत्तरा प्रियदर्शिनीटीका, भा. २, पृ. ४१५
२.
(क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३१४
(ख) उत्तरा प्रियदर्शिनीटीका, भा. २, पृ. ४१९-४२०
३. बृहद्वृत्ति, पत्र ३१४ (१) अतति सततं गच्छति तानि तान्यध्यवसायस्थानान्तराणीति व्युत्पत्तेरात्मा मनः, तच्च दुर्जयम् (२) अथवा चकारो हेत्वर्थ:, यस्मादात्मैव जीव एव दुर्जयः । ततः सर्वमिन्द्रियाद्यात्मनि जिते जितम् ।