SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ उत्तराध्ययनसूत्र अपराधी जाने नहीं जाते, इसलिए वे दण्डित होने से बच जाते हैं और निरपराध दण्डित किये जाते हैं। ऐसी स्थिति में निरपराधियों को जाने विना ही दण्ड दे देने वाले शासक में धार्मिकता कैसे घटित हो सकती है? अतः आपका हेतु असिद्ध है। आध्यात्मिक दृष्टि से नमि राजर्षि का तात्पर्य यह था कि ये इन्द्रियरूपी तस्कर ही मोक्षाभिलाषियों के द्वारा निग्रह - दमन - करने योग्य हैं, क्योंकि ये ही आत्मगुणरूपी सर्वस्व के अपहारक हैं। जो-जो सर्वस्व-अपहारक होते हैं, वे ही निग्रहणीय होते हैं, जैसे तस्कर आदि। इस प्रकार नमि राजर्षि द्वारा उक्त हेतु एवं कारण है। आमोषादि चारों के अर्थ (१) आमोष-पंथमोषक-बटमार, मार्ग में लूटने वाला, सर्वस्व हरण करने वाला। (२) लोमहार-मारकर सर्वस्व हरण करने वाला, डाकू, पीड़नमोषक-पीड़ा पहुँचा कर लूटने वाला। (३) ग्रन्थिभेदक द्रव्य सम्बन्धी गांठ कैंची आदि के द्वारा कुशलता से काट लेने वाला, या सुवर्णयौगिक या नकली सोना बना कर युक्ति से अथवा इसी तरह के दूसरे कौशल से लोगों को ठगने वाला। (४) तस्कर - सदैव चोरी करने वाला। मिच्छादंडो पउंजई-अज्ञान, अहंकार और लोभ आदि कारणों से मनुष्य मिथ्यादण्ड का प्रयोग करता है, अर्थात्-वह निरपराध को देश-निष्कासन तथा शारीरिक निग्रह यातना आदि दण्ड दे देता है। छठा प्रश्नोत्तर : उद्दण्ड राजाओं को वश में करने के सम्बन्ध में ३१. एयमढे निसामित्ता हेउकारण-चोइओ। तओ नमिं रायरिसिं देविन्दो इणमब्बवी॥ [३१] इस (अनन्तरोक्त) अर्थ को सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्र ने नमि राजर्षि को इस प्रकार कहा ३२. 'जे केई पत्थिवा तुब्भं नाऽऽनमन्ति नराहिवा! __वसे ते ठावइत्ताणं तओ गच्छसि खत्तिया! ॥' [३२] हे नराधिपति ! हे क्षत्रिय ! कई राजा, जो आपके सामने नहीं झुकते (नमते – आज्ञा नहीं मानते), (पहले) उन्हें अपने वश में करके, फिर (प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए) जाना। ३३. एयमझें निसामित्ता हेउकारण-चोइओ। तओ नमी रायरिसी देविन्दं इणमब्बवी-॥ [३३] (देवेन्द्र की) यह बात सुन कर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने देवेन्द्र को यों कहा १. (क) बृहवृत्ति, पत्र ३१२ (ख) उत्तरा., प्रियदर्शिनी टीका, भा. २, पृ.४१२-४१३ २. (क) उत्तरा. चूर्णि, पृ. १८३ (ख) बृहवृत्ति, पत्र ३१२ ३. 'मिथ्या-व्यलीकः, किमुक्तं भवति?- अनपराधिष्वज्ञानाहंकारादिहेतुभिरपराधिष्विव दण्डनं-दण्ड:- देश-त्याग शरीरनिग्रहादिः।' – बृहद्वृत्ति पत्र ३१३
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy