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उत्तराध्ययनसूत्र
[२४] हे क्षत्रिय ! पहले आप प्रासाद (महल), वर्धमानगृह (वास्तुशास्त्र के अनुसार विविध वर्द्धमान घर) और बालाग्रपोतिकाएँ ( - चन्द्रशालाएँ) बनवाकर, तदनन्तर जाना अर्थात् प्रव्रजित होना । २५. एयमट्ठ निसामित्ता हेउकारण- चोइओ ।
तओ नमी रायरसी देविन्दं इणमब्बवी ||
[२५] देवेन्द्र की बात को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से इस प्रकार
कहा -
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'संसयं खलु सो कुणई जो मग्गे कुणई घरं । जत्थेव गन्तुमिच्छेज्जा तत्थ कुव्वेज्ज सासयं । । '
[२६] जो मार्ग में घर बनाता है, वह निश्चय ही संशयशील बना रहता है ( पता नहीं, कब उसे छोड़ कर जाना पड़े) । अतएव जहाँ जाने की इच्छा हो, वहीं अपना शाश्वत घर बनाना चाहिए ।
२६.
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विवेचन – इन्द्र के द्वारा प्रस्तुत हेतु और कारण अपने वंशजों के लिए आपको प्रासाद आदि बनवाने चाहिए, क्योंकि आप समर्थ और प्रेक्षावान् हैं; यह हेतु और कारण है • प्रासाद आदि बनवाए बिना सामर्थ्य के होते हुए भी आप में प्रेक्षावत्ता - सूक्ष्मबुद्धिमत्ता घटित नहीं होती। 'क्षत्रिय' शब्द से सामर्थ्य और प्रेक्षावत्ता उपलक्षित की है।
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नमि राजर्षि के उत्तर का आशय - जिस व्यक्ति को यह संदेह होता है कि मैं अपने अभीष्ट शाश्वत स्थान (मोक्ष) तक पहुँच सकूँगा या नहीं, वही मार्ग में संसार में अपना घर बनाता है। मुझे तो दृढ़ विश्वास है कि मैं वहाँ पहुँच जाऊँगा और वहीं पहुँचकर मैं अपना शाश्वत ( स्थायी) घर बनाऊँगा । अतः समर्थता और प्रेक्षावत्ता में कहाँ क्षति है? क्योंकि मैं तो अपने घर बनाने की तैयारी में लगा हुआ हूँ और स्वाश्रयी शाश्वत गृह बनाने में प्रवृत्त हूँ ! अतः प्रेक्षावान् हेतु वास्तव में सिद्धसाधन है। 'मोक्षस्थान ही मेरे लिए गन्तव्यस्थान है, क्योंकि वही शाश्वत सुखास्पद है' यह प्रतिज्ञा एवं हेतु वाक्य है। जो ऐसा नहीं होता वह स्थान मुमुक्षु के लिए गन्तव्य नहीं होता, जैसे नरकनिगोदादि स्थान; यह व्यतिरेक उदाहरण है । २
४.
वद्धमाणगिहाणि - वर्द्धमानगृह - वास्तुशास्त्र में कथित अनेकविध गृह । मत्स्यपुराण के मतानुसार वर्द्धमानगृह वह है, जिसमें दक्षिण की ओर द्वार न हो। वाल्मीकि रामायण में भी ऐसा ही बताया गया है और उसे 'धनप्रद' कहा है। ३
बालग्गपोइयाओ – बालाग्रपोतिका देशी शब्द है, अर्थ है - वलभी, अर्थात् – चन्द्रशाला, अथवा तालाब में निर्मित लघु प्रासाद।
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१. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३११ २. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३११
३.
(क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३११
(ग) दक्षिणद्वाररहितं वर्धमानं धनप्रदम् ।' - वाल्मीकि रामायण ५/८ (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र ३१२
(क) उत्त. चूर्णि, पृ. १८३
(ख) उत्तरा, प्रियदर्शिनी टीका, भा. २, पृ. ४०८ (ख) उत्तरा, प्रियदर्शिनी टीका, भा. २, पृ. ४०९ (ख) 'दक्षिणद्वारहीनं तु वर्धमानमुदाहृतम्'
मत्स्यपुराण, पृ. २५४