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नवम अध्ययन : नमिप्रव्रज्या
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[२१] (आत्मवीर्य के उल्लासरूप) पराक्रम को धनुष बनाकर, ईर्यासमिति (उपलक्षण से अन्य समितियों) को धनुष की प्रत्यंचा (डोर या जीवा) तथा धृति को उसकी मूठ (केतन) बना कर सत्य (स्नायुरूप मन:सत्यादि) से उसे बांधे;
२२. तवनारायजुत्तेण भेत्तूणं कम्मकंचुयं।
मुणी विगयसंगामो भवाओ परिमुच्चए॥' ___[२२] तपरूपी बाणों से युक्त (पूर्वोक्त) धनुष से कर्मरूपी कवच को भेद कर (जीतने योग्य कर्मों को अन्तर्युद्ध में जीत कर) संग्राम से विरत मुनि भव से परिमुक्त हो जाता है।
विवेचन-इन्द्र के प्रश्न में हेतु और कारण-आप क्षत्रिय होने से नगररक्षक हैं, भरत आदि के समान; यह हेतु है। नगररक्षा करने से ही आप में क्षत्रियत्व घटित हो सकता है, यह कारण है। प्रस्तुत गाथा में 'क्षत्रिय' सम्बोधन से हेतु उपलक्षित किया गया है। आशय यह है कि आप क्षत्रिय हैं, इसलिए पहले क्षत्रियधर्म (-नगररक्षारूप) का पालन किए बिना आपका प्रव्रजित होना अनुचित है।१
नमि राजर्षि के उत्तर का आशय – मैंने आन्तरिक क्षत्रियत्व घटित कर दिया है, क्योंकि सच्चा क्षत्रिय षट्कायरक्षक एवं आत्मरक्षक होता है। कर्मरूपी शत्रुओं को पराजित करने के लिए वह आन्तरिक युद्ध छेड़ता है। उस आन्तरिक युद्ध में मुनि श्रद्धा को नगर बनाता है एवं तप, संवर, क्षमा, तीन गुप्ति, पाँच समिति, धृति, पराक्रम आदि विविध सुरक्षासाधनों के द्वारा आत्मरक्षा करते हुए विजय प्राप्त करता है। अन्तर्युद्ध-विजेता मुनि संसार से सर्वथा विमुक्त हो जाता है। २
सद्ध- समस्त गुणों के धारण करने वाली तत्त्वरुचिरूप श्रद्धा । अग्गलं - तप - बाह्य और आभ्यन्तर तप एवं आश्रवनिरोधरूप संवर मिथ्यात्वादि दोषों की निवारक होने से अर्गला है।
खंतिं निउणपागारं-क्षमा,-उपलक्षण से मार्दव, आर्जव आदि सहित क्षमा, श्रद्धारूप नगर को ध्वस्त करने वाले अनन्तानुबन्धीकषाय की अवरोधक होने से - क्षान्ति को समर्थ सुदृढ़ कोट या परकोटा बना कर । सयग्घी-शतघ्नी - एक बार में सौ व्यक्तियों का संहार करने वाला यंत्र, तोप जैसा अस्त्र । ३ चतुर्थ प्रश्नोत्तर : प्रासादादि-निर्माण कराने के सम्बन्ध में
२३. एयमढं निसामित्ता हेउकारण- चोइओ।
तओ नमि रायरिसिं देविन्दो इणमब्बवी।। [२३] देवेन्द्र ने इस बात को सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि से इस प्रकार कहा -
२४ 'पासाए कारइत्ताणं वद्धमाणगिहाणि य।
वालग्गपोइयाओ य तओ गच्छसि खत्तिया!।।'
१. (क) बृहवृत्ति, पत्र ३११ २. बृहद्वृत्ति, पत्र ३११
(ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. २, पृ. ३९४ ३. बृहद्वृत्ति, पत्र ३११