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उत्तराध्ययनसूत्र
एकोऽहं न मे कश्चित् स्वः परो वापि विद्यते। यदेको जायते जन्तुम्रियते चैक एव हि॥ एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुतो।
सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा॥ अतः अन्तपुरादि पक्ष में स्वत्वरूप हेतु का सद्भाव न रहने से इन्द्रोक्त हेतु असिद्ध है और रक्षणीय होने से इनका त्याग न करने रूप कारण भी यर्थाथ नहीं है। वस्तुतः अभिनिष्क्रमण के लिए ये सब संयोगजनित बन्धन त्याज्य हैं, परिग्रह नरक आदि अनर्थ का हेतु होने से मोक्षाभिलाषी द्वारा त्याज्य है।
भदं - भद्र शब्द कल्याण और सुख तथा आनन्द-मंगल अर्थ में प्रयुक्त होता है।
पियं अप्पियं - प्रिय अप्रिय शब्द यहाँ इष्ट और अनिष्ट अर्थ में है। एक को इष्ट – प्रिय और दूसरे को अनिष्ट – अप्रिय मानने से राग-द्वेष होता है, जो दु:ख का कारण है।२ ।। तृतीय प्रश्नोत्तर : नगर को सुरक्षित एवं अजेय बनाने के सम्बन्ध में
१७. एयमढं निसामित्ता हेउकारण- चोइओ।
तओ नमिं रायरिसिं देविन्दो इणमब्बवी- ॥ [१७] इस बात को सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हुए देवेन्द्र ने तब नमि राजर्षि को इस प्रकार
कहा
१८. 'पागारं कारइत्ताणं गोपुरट्टालगाणि य।
उस्सूलग-सयग्घीओ तओ गच्छसि खत्तिया! ॥' [१८] हे क्षत्रिय ! पहले तुम प्राकार (-परकोटा), गोपुर (मुख्य दरवाजा), अट्टालिकाएँ, दुर्ग की खाई, शतिघ्नियाँ (किले के द्वार पर चढ़ाई हुई तोपें) बनवा कर, फिर प्रव्रजित होना।
१९. एयमढं निसामित्ता हेउकारण-चोइओ।
तहो नमी रायरिसी देविन्दं इणमब्बवी- ॥ [१९] इस अर्थ को सुनकर हेतु और कारण से प्रेरित हुए नमि राजर्षि ने देवेन्द्र को यह कहा -
२०. 'सद्धं नगरं किच्चा तवसंवरमग्गलं।
खन्तिं निउणपागारं तिगुत्तं दुप्पधंसयं॥ [२०] (जो मुनि) श्रद्धा को नगर, तप और संवर को अर्गला, क्षमा को (शत्रु से रक्षण में) निपुण (सुदृढ़) प्राकार (दुर्ग) को (बुर्ज, खाई और शतघ्नीरूप) त्रिगुप्ति (मन-वचन-काया की गुप्ति)से सुरक्षित एवं अपराजेय बना कर तथा –
२१. धणु परक्कम किच्चा जीवं च ईरियं सया।
धिइंच केयणं किच्चा सच्चेण पलिमन्थए।
१. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३१० २. (क) 'भद्रं कल्याणं सुखं च।'
(ख) उत्तरा, प्रियदर्शिनीटीका, भा. २, पृ. ३८५-३८६ (ख) 'प्रियमिष्टं, अप्रियमनिष्टम्।'- बृ. वृ., पत्र ३१०