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नवम अध्ययन : नमिप्रव्रज्या
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रहा
[१२] भगवन् ! यह अग्नि है और यह वायु है । (इन दोनों से) आपका यह मन्दिर (महल) जल । अतः आप अपने अन्त: पुर ( रनिवास) की ओर क्यों नहीं देखते ? ( अर्थात् जो वस्तु अपनी हो, उसकी रक्षा करनी चाहिए । यह अन्त: पुर आपका है, अतः इसकी रक्षा करना आपका कर्त्तव्य है ।) १३. एयमट्ठ निसामित्ता हेउकारण - चोइओ ।
तओ नमी रायरिसी देविन्दं इणमब्बवी - ॥
[१३] तत्पश्चात् देवेन्द्र की यह बात सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षि ने देवेन्द्र से
यह कहा -
१४. 'सुहं वसामो जीवामो जेसिं मो नत्थि किंचण । मिहिलाए डज्झमाणीए न मे डज्झइ किंचण ॥'
[१४] जिनके पास अपना कुछ भी नहीं है, ऐसे हम लोग सुख से रहते हैं और जीते हैं । अतः मिथिला के जलने से मेरा कुछ भी नहीं जलता ।
१५. चत्तपुत्तकलत्तस्स निव्वावारस्स भिक्खुणो । पियं न विज्जई किंचि अप्पियं पि न विज्जए ॥
[१५] पुत्र और पत्नी आदि का परित्याग किये हुए एवं गृह कृषि आदि सावद्य व्यापारों से मुक्त भिक्षु के लिए न कोई वस्तु प्रिय होती है और न कोई अप्रिय है।
१६.
बहुं खु मुणिणो भद्दं अणगारस्स भिक्खुणो । सव्वओ विप्पमुक्कस्स एगन्तमणुपस्सओ ॥
[१६] (बाह्य और आभ्यन्तर) सब प्रकार ( के संयोगों या परिग्रहों) से विमुक्त एवं 'मैं सर्वथा अकेला ही हूँ', इस प्रकार एकान्त ( एकत्वभावना) के अनुप्रेक्षक अनगार (गृहत्यागी) मुनि को भिक्षु ( भिक्षाजीवी) होते हुए भी बहुत ही आनन्द - मंगल (भद्र ) हैं । '
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विवेचन – हेउकारण – चाइओ इन्द्र के द्वारा प्रस्तुत हेतु और कारण अपने राजभवन एवं अन्तःपुर की आपको रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि ये आपके है। जो-जो अपने होते हैं, वे रक्षणीय होते हैं, जैसे - ज्ञानादि गुण । भवन एवं अन्तःपुर आपके हैं, इस कारण इनका रक्षण करना चाहिए। ये क्रमशः हेतु और कारण हैं।
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नमि राजर्षि के उत्तर का आशय - • इस संसार में एक मेरे (आत्मा के सिवाय और कोई भी वस्तु (स्त्री, पुत्र, अन्तःपुर, भवन, शरीर, धन आदि) मेरी नहीं है । यहाँ किसी प्राणी की कोई भी वस्तु नहीं है। मेरी जो वस्तु है, वह (आत्मा तथा आत्मा के ज्ञानादि निजगुण) मेरे पास है। जो अपनी होती है, उसी की रक्षा अग्नि जलादि के उपद्रवों से की जाती है। जो अपनी नहीं होती, उसे मिथ्याज्ञानवश अपनी मान कर कौन अकिंचन, निर्व्यापार, गृहत्यागी भिक्षु दुःखी होगा? जैसे कि कहा है
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(क) बृहद्वृत्ति, पत्र ३१० (ख) उत्तरा,
प्रियदर्शिनीटीका, भा. २, पृ. ३८४