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________________ १३२ उत्तराध्ययनसूत्र चेइए वच्छे–यहाँ चैत्य और वृक्ष, दो शब्द हैं। चैत्य का प्रसंगवश अर्थ है-उद्यान, जो चित्त का आह्लादक है। उसी चैत्य (उद्यान) का एक वृक्ष। बहूणं बहुगुणे : व्याख्या-बहुतों का-प्रसंगवश बहुत-से पक्षियों का। बहुगुण-जिससे बहुत गुणफलादि के कारण प्रचुर उपकार हो, वह; अर्थात् अत्यन्त उपकारक। प्रस्तुत उत्तर : उपमात्मक शब्दों में यहाँ नमि राजर्षि ने मिथिला नगरी स्थित चैत्य-उद्यान से राजभवन को. स्वयं को मनोरम वक्ष से तथा उस वक्ष पर आश्रय पाने वाले परजन-परिजनों को पक्षियों से उपमित किया है। वृक्ष के उखड जाने पर जैसे पक्षिगण हृदयविदारक क्रन्दन करते हैं, वैसे ही ये परजन-परिजन आक्रन्द कर रहे हैं। नमि राजर्षि के उत्तर का हार्द-आक्रन्द आदि दारुण शब्दों का कारण मेरा अभिनिष्क्रमण नहीं है, इसलिए यह हेतु असिद्ध है। पौरजन-स्वजनों के आक्रन्दादि दारुण शब्दों का हेतु तो और ही है, वह है स्वस्व-प्रयोजन (स्वार्थ) का विनाश । कहा भी है आत्मार्थ सीदमानं स्वजनपरिजनो रौति हाहा रवार्तो, भार्या चात्मोपभोगं गृहविभवसुखं स्वं वयस्याश्च कार्यम्। क्रन्दत्यन्योन्यमन्यस्त्विह हि बहुजनो लोकयात्रानिमित्तं, यश्चान्यस्तत्र किन्चित् मृगयति कि गुणं रोदितीष्टः स तस्मै॥ अर्थात्-स्वजन-परिजन या पौरजन अपने स्वार्थ के नाश होने के कारण, पत्नी अपने विषयभोग, गृहवैभव के सुख और धन के लिए, मित्र अपने कार्य रूप स्वार्थ के लिए , बहुत-से लोग इस जगत् में लोकयात्रा (आजीविका) निमित्त परस्पर एक दूसरे के अभीष्ट स्वार्थ के लिए रोते हैं। जो जिससे किसी भी गुण-(लाभ या उपकार) की अपेक्षा रखता है, वह इष्टजन उसके विनाश के लिए ही रोता है। अत: मेरा यह अभिनिष्क्रमण, उनके क्रन्दन का हेतु कैसे हो सकता है! न ही मेरा यह अभिनिष्क्रमण, क्रन्दनादि कार्य का नियत पूर्ववर्ती कारण है। वस्तुतः अभिनिष्क्रमण (संयम) किसी के लिए भी पीड़ाजनक नहीं होता, क्योंकि वह षट्कायिक जीवों की रक्षा के हेतु होता है। द्वितीय प्रश्नोत्तर : जलते हुए अन्तःपुर-प्रेक्षण सम्बन्धी ११. एयमढें निसामित्ता हेउकारण - चोइओ। तओ नमिं रायरिसिं देविन्दो इणमब्बवी-॥ [११] देवेन्द्र ने (नमि राजर्षि के) इस अर्थ (बात) को सुन कर हेतु और कारण से प्रेरित हो कर नमि राजर्षि को इस प्रकार कहा १२. 'एस अग्गी य वाऊ य एयं डज्झइ मन्दिरं। भवयं! अन्तेउरं तेणं कीस णं नावपेक्खसि?॥' १. (क) बृहद्वृत्ति, पत्रांक ३०९ (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. २, पृ.३७७ २. बृहद्वृत्ति, पत्र ३०९ ३. (क) वही, पत्र ३०९ (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनीटीका, भा. २, पृ. ३७९
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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