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अंग
उत्तराध्ययन/२२ ९. दाईं भुजा
अनुत्तरौपपातिकदशा १०. बाईं भुजा
प्रश्नव्याकरण ११. ग्रीवा
विपाक १२. शिर
दृष्टिवाद प्रस्तुत स्थापना में आचारांग और सूत्रकृतांग को, मूलस्थानीय अर्थात् चरणस्थानीय माना है। १७ दूसरे रूप में भी श्रुतपुरुष की स्थापना की गई है। उस रेखांकन में आवश्यक, दशवैकालिक, पिण्डनियुक्ति और उत्तराध्ययन, इन चारों को मूलस्थानीय माना है। प्राचीन ज्ञानभण्डारों में श्रुत-पुरुष के अनेक, चित्र प्राप्त हैं। द्वादश उपांगों की रचना होने के बाद श्रुतपुरुष के प्रत्येक अंग के साथ एक-एक उपांग की कल्पना की गई है। क्योंकि अंगों के अर्थ को स्पष्ट करने वाला उपांग है। किस अंग का कौन सा उपांग है, वह इस प्रकार प्रतिपादित किया गया है
उपांग आचारांग
औपपातिक सूत्रकृत
राजप्रश्नीय स्थानांग
जीवाभिगम समवाय
प्रज्ञापना भगवती
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ज्ञाताधर्मकथा
सूर्यप्रज्ञप्ति उपासकदशा
चन्द्रप्रज्ञप्ति अन्तकृत्दशा
निरयावलिया-कल्पिका अनुत्तरौपपातिकदशा
कल्पावतंसिका प्रश्नव्याकरण
पुष्पिका विपाक
पुष्पचूलिका दृष्टिवाद
वृष्णिदशा जिस समय पैतालीस आगमों की संख्या स्थिर हो गई, उस समय श्रुतपुरुष की जो आकृति बनाई गई है, उसमें दशवैकालिक और उत्तराध्ययन को मूल स्थान पर रखा गया है। पर यह श्रुत-पुरुष की आकृति का रेखांकन बहुत ही बाद में हुआ है। यह भी अधिक सम्भव है कि उत्तराध्ययन, दशवकालिक को मूलसूत्र मानने का एक कारण यह भी रहा हो।१८
जैन आगम-साहित्य में उत्तराध्ययन और दशवैकालिक का गौरवपूर्ण स्थान है। चाहे श्वेताम्बर-परम्परा के आचार्य रहे हों, चाहे दिगम्बरपरम्परा के, उन्होंने उत्तराध्ययन और दशवैकालिक का पुन: पुन: उल्लेख किया
१७. श्री आगमपुरुष- रहस्य, पृष्ठ ५० के सामने (श्री उदयपुर मेवाड़ के हस्तलिखित भण्डार से प्राप्त प्राचीन)
श्री आगमपुरुष का चित्र । १८. श्री आगमपुरुषर्नु रहस्य, पृष्ठ १४ तथा ४९ के सामने वाला चित्र ।