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________________ - समीक्षात्मक अध्ययन/२१. जाने लगी।१२ मूलसूत्रों की संख्या के सम्बन्ध में भी ऐकमत्य नहीं है। समयसुन्दरगणी ने १. दशवैकालिक, २. ओघनियुक्ति, ३. पिण्डनियुक्ति, ४. उत्तराध्ययन , ये चार मूलसूत्र माने हैं।१३ भावप्रभसूरि ने १. उत्तराध्ययन, २. आवश्यक, ३. पिण्डनियुक्ति-ओघनियुक्ति तथा ४. दशवैकालिक, ये चार मूलसूत्र माने हैं।१४ प्रोफेसर बेवर, प्रोफेसर बूलर ने, १. उत्तराध्ययन २. आवश्यक और, ३. दशवैकालिक, इन तीनों को मूलसूत्र कहा है। डॉ. सारपेन्टियर, डॉ. विन्टरनीत्ज और डॉ. ग्यारीनो ने १. उत्तराध्ययन, २. आवश्यक ३. दशवैकालिक एवं ४. पिण्डनियुक्ति को मूलसूत्र की संज्ञा दी है। डॉ. सुजिंग ने १. उत्तराध्ययन , २. दशवैकालिक ३. आवश्यक तथा ४. पिण्डनियुक्ति एवं ५. ओघनियुक्ति , इन पांचों को मूलसूत्र बताया है।१५ स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, नन्दी और अनुयोगद्वारसूत्र को मूलसूत्र मानती हैं। __ मूलसूत्रविभाग की कल्पना का आधार श्रुत-पुरुष भी हो सकता है। सर्वप्रथम जिनदासगणी महत्तर ने श्रुत-पुरुष की कल्पना की है।१६ श्रुत-पुरुष के शरीर में बारह अंग हैं, जैसे –प्रत्येक पुरुष के शरीर में दो पैर, जो जंघायें, दो उरु, दो गात्रार्ध (पेट और पीठ) , दो भुजाएँ, ग्रीवा और सिर होते हैं, वैसे ही आगम साहित्य के बारह अंग हैं। अंगबाह्य श्रुत-पुरुष के उपांग-स्थानीय हैं। प्रस्तुत परिकल्पना अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य, इन दो आगमिक वर्गों के आधार पर हुई है। इस वर्गीकरण में मूल और छेद को स्थान प्राप्त नहीं है। आचार्य हरिभद्र, जिनका समय विक्रम की आठवीं शताब्दी है और आचार्य मलयगिरि, जिनका समय विक्रम की तेरहवीं शताब्दी है, उन्होंने भी नन्दीसूत्र की अपनी वृत्तियों में अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य को ही स्थान दिया है। आचार्य जिनदासगणी महत्तर के आदर्श को लेकर ही वे चले हैं। अंगप्रविष्ट श्रुत की स्थापना इस प्रकार है१. दायाँ पैर आचारांग २. बायाँ पैर सूत्रकृतांग ३. दाईं जंघा स्थानांग ४. बाईं जंघा समवायांग ५. दायाँ उरु भगवती ६. बायाँ उरु ज्ञाताधर्मकथा उपासकदशा ८. पीठ अन्तकृद्दशा ७. उदर १२. पुव्वं सत्थपरिण्णा, अधीय पढियाइ होइ उवट्टवणा। इण्हिच्छज्जीवणया, किं सा उ न होउ उवट्टवणा॥ - व्यवहारभाष्य उद्देशक ३, गाथा १७४ १३. समाचारीशतक। १४. अथ उत्तराध्ययन—आवश्यक–पिण्डनियुक्ति तथा ओघनियुक्ति–दशवैकालिक -इति चत्वारि मूलसूत्राणि । -जैनधर्मवरस्तोत्र, श्लो. ३० की स्वोपज्ञवृत्ति (ले. भावप्रभसूरि, झवेरी जीवनचन्द साकरचन्द्र) १५. ए हिस्ट्री ऑफ दी केनोनिकल लिटरेचर ऑफ दी जैन्स, पृष्ठ ४४-४५ लेखक, एच. आर. कापड़िया १६. इच्चेतस्स सुत्तपुरिसस्स जं सुत्तं अंगभागठितं तं अंगपविष्टुं भण्णइ। -नन्दीसूत्र चूर्णि, पृष्ठ ४७
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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