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________________ १३० भवयं : भगवान् : अनेक अर्थ-भग शब्द के अनेक अर्थ हैं, यथा ऐश्वर्यस्य समग्रस्य रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतीङ्गना ॥ अर्थात् समग्र ऐश्वर्य, रूप, यश, श्री, धर्म और प्रयत्न, ये छह 'भग' कहलाते हैं। 'भग' से जो सम्पन्न हो वह भगवान् है। अन्यत्र अन्य अर्थ भी बतलाए गए हैं धैर्य, सौभाग्य, माहात्म्य, सूर्य, यश, श्रुत, बुद्धि, लक्ष्मी, तप, अर्थ, योनि, पुण्य, ईश, प्रयत्न और तनु । प्रस्तुत प्रसंग में 'भग' शब्द का अर्थ-बुद्धि, धैर्य या ज्ञान है । भगवान् का अर्थ है- बुद्धिमान्, धैर्यवान्, या अतिशय ज्ञानवान् । अभिणिक्खमई-अभिनिष्क्रमण किया-घर से प्रव्रज्या के लिए निकला, दीक्षाग्रहण की । २ एगतमहिट्टिओ – एकान्त शब्द के चार अर्थ – (१) मोक्ष - जहाँ कर्मों का अन्त हो कर जीव एक - अद्वितीय रहता हो, ऐसा स्थान मोक्ष ही है। (२) मोक्ष के उपायभूत सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र भी एकान्तएकमात्र अन्त – उपाय हैं। इनकी आराधना से जीवन्मुक्ति की प्राप्ति होती है । (३) एकान्त - द्रव्य से निर्जन उद्यान, श्मशानादि स्थान हैं । (४) भाव से एकान्त का अर्थ मैं अकेला हूँ, मैं किसी का नहीं हूँ, न मेरा कोई है, जिस-जिस पदार्थ को मैं अपना देखता हूँ, वह मेरा नहीं दिखाई देता; इस भावना से मैं अकेला ही हूँ, ऐसा निश्चय एकान्त है । एकान्त को अधिष्ठित - आश्रित । ३ अभिणिक्खमन्तंमि अभिनिष्क्रमण करने पर अर्थात् द्रव्य से अन्तःकरण से कषायादि के निकाल देने पर । ४ - प्रथम प्रश्नोत्तर: मिथिला में कोलाहल का कारण ६. १. उत्तराध्ययनसूत्र - अब्भुट्ठियं रायरिसिं पव्वज्जा - ठाणमुत्तमं । सक्को माहणरूवेण इमं वयणमब्बवी - ॥ घर से निकलने पर, भावतः [६] सर्वोत्कृष्ट प्रव्रज्यारूप स्थान ( सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्रादि गुणों की स्थानभूत प्रव्रज्या) के लिए अभ्युत्थित हुए राजर्षि नमि को ब्राह्मण के रूप में आए हुए शक्र ( देवेन्द्र ) ने यह वचन कहा ७. 'किण्णु भो! अज्ज मिहिलाए कोलाहलग-संकुला । सुव्वन्ति दारुणा सद्दा पासासु गिहेसु य?' भगशब्दो यद्यपि धैर्यादिष्वनेकार्थेषु वर्तते, यदुक्तम्'धैर्य-सौभाग्य-माहात्म्य-यशोऽर्के श्रुत-धी- श्रियः । तपोऽर्थोऽपस्थ - पुण्येश प्रयत्न - तनवो भगाः ॥ ' - बृ. वृ., पत्र ३०७ २. अभिनिष्क्रमति-धर्माभिमुख्येन गृहस्थपर्यायान्निर्गच्छति - बृ. वृ., पत्र ३०७ ३. एगंतत्ति—एकोऽद्वितीयः कर्मणामन्तो यस्मिन्निति एकान्तः । तत एकान्तो मोक्षः, तदुपाय - सम्यग्दर्शनाद्यासेवनात " इहैव जीवनमुक्त्यवाप्तेः । यद्वा एकान्तं द्रव्यतो विजनमुद्यानादि । भावतश्च-एकोऽहं न मे कश्चिद् नाहमन्यस्य कस्यचित् । तं तं पश्यामि यस्याऽहं नाऽसौ दृश्योऽस्ति यो मम ॥ - बृहद्वृत्ति, पत्र ३०६. ४. बृहद्वृत्ति, पत्र ३०७.
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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