________________
अष्टम अध्ययन : कापिलीय
१२३
कामभोगरसा—दो अर्थ—(१) तथाविध कामभोगों में अत्यन्त आसक्ति वाले, (२) कामभोगों एवं रसों (शृंगारादि या मधुर, तिक्त आदि रसों) में गृद्ध।
आसुरे काए : दो अर्थ—(१) असुरदेवों के निकाय में, (२) अथवा रौद्र तिर्यक्योनि में।
बोही-बोधि-(१) बोधि का अर्थ है-परलोक में-अगले जन्म में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रात्मक जिनधर्म की प्राप्ति, (२) त्रिविधिबोधि—ज्ञानबोधि, दर्शनबोधि और चारित्रबोधि।३ दुष्पूर लोभवृत्ति का स्वरूप और त्याग की प्रेरणा
१६. कसिणं पि जो इमं लोयं पडिपुण्णं दलेज इक्कस्स।
तेणावि से न संतुस्से इइ दुप्पूरए इमे आया॥ [१६] यदि धन-धान्य से पूर्ण यह समग्र लोक भी किसी (एक) को दे दिया जाए, तो भी वह उससे सन्तुष्ट नहीं होगा। इतनी दुष्पूर है यह (लोभाभिभूत) आत्मा!
१७. जहा लाहो तहा लोहो लाहा लोहो पवड्ढई।
दोमास-कयं कजं कोडीए वि न निट्ठियं॥ [१७] जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे-वैसे लोभ बढ़ता है। दो माशा सोने से निष्पन्न होने वाला कार्य करोड़ों (स्वर्ण-मुद्राओं) से भी पूरा नहीं हुआ।
विवेचन–कपिलकेवली का प्रत्यक्ष पूर्वानुभव-इन दो गाथाओं में वर्णित है।
न संतुस्से-धन-धान्यादि से परिपूर्ण समग्र लोक के दाता से भी लोभवृत्ति संतुष्ट नहीं होती है। अर्थात् -मुझे इतना देकर इसने परिपूर्णता कर दी, इस प्रकार की संतुष्टि उसे नहीं होती। कहा भी है
न वह्निस्तृणकाष्ठेषु, नदीभिर्वा महोदधिः ।
न चैवात्मार्थसारेण, शक्यस्तर्पयितुं क्वचित्॥ अग्नि तृण और काष्ठों से और समुद्र नदियों से तृप्त नहीं होता, वैसे ही आत्मा अर्थ-सर्वस्व दे देने से कभी तृप्त नहीं किया जा सकता।" स्त्रियों के प्रति आसक्ति-त्याग का उपदेश
१८. नो रक्खसीसु गिज्झेजा गंडवच्छासु ऽणेगचित्तासु।
जाओ पुरिसं पलोभित्ता खेल्लन्ति जहा व दासेहिं॥ [१८] जिनके वक्ष में गाठे (ग्रन्थियाँ) हैं, जो अनेक चित्त (कामनाओं) वाली हैं, जो पुरुष को प्रलोभन में फंसा कर खरीदे हुए दास की भांति उसे नचाती हैं, (वासना की दृष्टि से ऐसी) राक्षसी-स्वरूप (साधनाविघातक) स्त्रियों में आसक्त (गृद्ध) नहीं होना चाहिए। १. बृहद्वृत्ति, पत्र २९६ २. (क) वही, पत्र २९६ (ख) चूर्णि, पृ० १७५-१७६ ३. (क) बोधिः -प्रेत्य जिनधर्मावाप्तिः। -बृ० वृ०, पत्र २९६ (ख) स्थानांग, स्थान ३/२/१५४ ४. उत्तरा० नियुक्ति, गा ८९ से ९२ तक ५. बृहद्वृत्ति, पत्र २९६