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उत्तराध्ययनसूत्र
कुम्मासं : अनेक अर्थ - (१) कुल्माष - राजमाष, (२) तरल और खट्टा पेय भोजन, जो फलों के रस से या उबले हुए चावलों से बनाया जाता है, (३) दरिद्रों का भोजन, (४) कुलथी, (५) कांजी । समाधियोग से भ्रष्ट श्रमण और उसका दूरगामी दुष्परिणाम
१३.
'जे लक्खणं च सुविणं च अंगविज्जं च जे पउंजन्ति । न हु ते समणा वुच्चन्ति एवं आयरिएहिं अक्खायं ॥
[१३] जो साधक लक्षणशास्त्र, स्वप्नशास्त्र एवं अंगविद्या का प्रयोग करते हैं, उन्हें सच्चे अर्थों में 'श्रमण' नहीं कहा जाता ( - जा सकता); ऐसा आचार्यों ने कहा है ।
१४. इह जीवियं अणियमेत्ता पब्भट्ठा समाहिजोएहिं । कामभोग - रसगिद्धा उववज्जन्ति आसुरे काए ॥
[१४] जो साधक वर्तमान जीवन को नियंत्रित न रख सकने के कारण समाधियोग से भ्रष्ट हो जाते हैं, वे कामभोग और रसों में गृद्ध ( - आसक्त) साधक आसुरकाय में उत्पन्न होते हैं।
१५. तत्तो वि य उवट्टित्ता संसारं बहुं अणुपरियडन्ति ।
बहुकम्मलेवलित्ताणं बोही होइ सुदुल्लहा तेसिं॥
[१५] वहाँ से निकल कर भी वे बहुत काल तक संसार में परिभ्रमण करते हैं। बहुत अधिक कर्मों के लेप से लिप्त होने के कारण उन्हें बोधिधर्म का प्राप्त होना अत्यन्त दुर्लभ है।
विवेचन — लक्षणविद्या - शरीर के लक्षणों - चिह्नों को देखकर शुभ-अशुभ फल कहने वाले शास्त्र को लक्षणशास्त्र या सामुद्रिकशास्त्र कहते हैं। शुभाशुभ फल बताने वाले लक्षण सभी जीवों में विद्यमान हैं।
स्वप्नशास्त्र — स्वप्न के शुभाशुभ फल की सूचना देने वाला शास्त्र ।
अंगविद्या—शरीर के अवयवों के स्फुरण (फड़कने) से शुभाशुभ बताने वाला शास्त्र । चूर्णिकार ने अंगविद्या का अर्थ आरोग्यशास्त्र कहा है । २
समाहिजोएहिं : समाधियोगों से – (१) समाधि - चित्तस्वस्थता, तत्प्रधान योग — मन-वचन— कायव्यापार-समाधियोग; (२) समाधि - शुभ चित्त की एकाग्रता, योग — प्रतिलेखना आदि प्रवृत्तियाँ - समाधियोग । ३
१.
(क) कुल्माषाः राजमाषा : ( राजमाह) - बृ० वृत्ति, पत्र २९५, सुखबोधा, पत्र १२९
(ख) A Sanskrit English Dictionary, P. 296
(ग) विनयपिटक ४ / १७६, विसुद्धिमग्गो १/११, पृ० ३०५
(घ) पुलाक, बुक्कस, मंथु आदि सब प्रान्त भोजन के ही प्रकार है-'अतिरूक्षतया चास्य प्रान्तत्वम्'
- बृहद्वृत्ति, पत्र २९५
२. (क) 'लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं, सामुद्रवत्।' -उत्त० चूर्णि, पृ० १७५
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(ख) लक्षणं च शुभाशुभसूचकं पुरुषलक्षणादि, रूढितः तत्प्रतिपादकं शास्त्रमपि लक्षणं । — बृहद्वृत्ति, पत्र २९५ (ग) वही, पत्र २९५ : 'अंगविद्यां च शिरः प्रभृत्यंगस्फुरणतः शुभाशुभसूचिकाम् ।'
(घ) अंगविद्या नाम आरोग्यशास्त्रम् । उत्त० चूर्णि पृ० १७५
३. बृहद्वृत्ति, पत्र २९५