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________________ अष्टम अध्ययन : कापिलीय १२१ उदाहरण— उज्जयिनी में एक श्रावकपुत्र था । एक वार चोरों ने उसका अपहरण कर लिया। उसे मालव देश में एक पारधी के हाथ बेच दिया। पारधी ने उससे कहा- 'बटेर मारो।' उसने कहा— 'नहीं मारूंगा।' इस पर उसे हाथी के पैरों तले कुचला तथा मारा-पीटा गया, मगर उसने प्राणत्याग का अवसर आने पर भी जीवहिंसा करना स्वीकार न किया । इसी प्रकार साधुवर्ग को भी जीवहिंसा त्रिकरण - त्रियोग से नहीं करनी चाहिए । ' रसासक्ति से दूर रह कर एषणासमितिपूर्वक आहार - ग्रहण - सेवन का उपदेश ११. सुद्धेसणाओ नच्चाणं तत्थ ठवेज्ज भिक्खू अप्पाणं । जायाए घासमेसेज्जा रसगिद्धे न सिया भिक्खाए ॥ [११] भिक्षु शुद्ध एषणाओं को जान कर उनमें अपने आप को स्थापित करे (अर्थात् — एषणा — शुद्ध आहार ग्रहण में प्रवृत्ति करे ) । भिक्षाजीवी साधु (संयम) यात्रा के लिए ग्रास (आहार) की एषणा करे, किन्तु वह रसों में गृद्ध (आसक्त) न हो। १२. पन्ताणि चेव सेवेज्जा सीयपिण्डं पुराणकुम्मासं । अदु वुक्कसं पुलागं वा जवणट्ठाए निसेवए मंथुं ॥ [१२] भिक्षु जीवनयापन (शरीरनिर्वाह ) के लिए (प्रायः) प्रान्त (नीरस ) अन्न-पान, शीतपिण्ड, पुराने उड़द (कुल्माष), बुक्कस ( सारहीन) अथवा पुलाक (रूखा) या मंथु (बेरसत्तु आदि के चूर्ण) का सेवन करे । विवेचन — जायाए घासमेसेज्जा : भावार्थ- संयमजीवन - निर्वाह के लिए साधु आहार की गवेषणादि करे। जैसे कि कहा है 'जह सगडक्खोवंगो कीरइ भरवहणकारणा णवरं । तह गुणभरवहणत्थं आहारो बंभयारीणं ॥ जैसे— गाड़ी के पहिये की धुरी को भार ढोने के कारण से चुपड़ा जाता है, वैसे ही महाव्रतादि गुणभार को वहन करने की दृष्टि से ब्रह्मचारी साधक आहार करे । २ पंताणि चेव सेवेज्जा : एक स्पष्टीकरण - इस पंक्ति की व्याख्या दो प्रकार से की गई है - प्रान्तानि च सेवेतैव, प्रान्तानि चैव सेवेत - (१) गच्छवासी मुनि के लिए यह विधान है कि यदि प्रान्तभोजन मिले तो उसे खाए ही, फैंके नहीं, किन्तु गच्छनिर्गत (जिनकल्पी) के लिए यह नियम है कि वह प्रान्त (नीरस) भोजन ही करे। साथ ही 'जवणट्ठाए' का स्पष्टीकरण भी यह है कि गच्छवासी साधु यदि प्रान्त आहार से जीवनयापन हो तो उसे खाए, किन्तु वातवृद्धि हो जाने के कारण जीवनयापन न होता हो 'न खाए। गच्छनिर्गत साधु जीवनयापन के लिए प्रान्त आहार ही करे । ३ २. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २९४ (ख) सुखबोधा, पत्र १२८ १. बृहद्वृत्ति, पत्र २९३ ३. बृहद्वृत्ति, पत्र २९४-२९५
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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