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________________ १२० उत्तराध्ययनसूत्र मन्द और अज्ञानी अपनी पापपूर्ण दृष्टियों से नरक में जाते हैं। ८. 'न हु पाणवहं अणुजाणे मुच्चेज कयाइ सव्वदुक्खाणं।' एवारिएहिं अक्खायं जेहिं इमो साहुधम्मो पन्नत्तो॥ [८] जिन्होंने इस साधुधर्म की प्ररूपणा की है, उन आर्यपुरुषों ने कहा है जो प्राणवध का अनुमोदन करता है, वह कदापि समस्त दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। ९. पाणे य नाइवाएजा से 'समिए' त्ति वुच्चई ताई। तओ से पावयं कम्मं निजाइ उदंग व थलाओ॥ [९] जो प्राणियों के प्राणों का अतिपात (हिंसा) नहीं करता, वही त्रायी (जीवरक्षक) मुनि समित' (सम्यक् प्रवृत्त) कहलाता है। उससे (अर्थात् उसके जीवन से) पापकर्म वैसे ही निकल (हट) जाता है, जैसे उन्नत स्थल से जल। १०. जगनिस्सिएहिं भूएहिं तसनामेहिं थावरेहिं च। ___ नो तेसिमारभे दंडं मणसा वयसा कायसा चेव॥ [१०] जो भी जगत् के आश्रित (संसारी) त्रस और स्थावर नाम के (नामकर्मवाले) जीव हैं; उनके प्रति मन, वचन और काय से किसी भी प्रकार के दण्ड का प्रयोग न करे। विवेचन—मिया अयाणंता : व्याख्या-पाशविक बुद्धि वाले, अज्ञपुरुष। ज्ञपरिज्ञा से—प्राणी कितने प्रकार के, कौन-कौन-से हैं, उनके प्राण कितने हैं? उनका वध-अतिपात कैसे हो जाता है? इन बातों को नहीं जानते तथा प्रत्याख्यानपरिज्ञा से प्राणिवध का प्रत्याख्यान नहीं करते। इस प्रकार प्रथम अहिंसाव्रत को भी नहीं जानते, तब शेष व्रतों का जानना को बहुत दूर की बात है। पावियाहिं दिट्ठीहिं : दो रूप : दो अर्थ (१) प्रापिका दृष्टियों से, अर्थात्-नरक को प्राप्त कराने वाली दृष्टियों से, (२) पापिका दृष्टियों से, अर्थात्-पापमयी या पापहेतुक या परस्पर विरोध आदि दोषों से दूषित दृष्टियों से : जैसे कि उन्हीं के ग्रन्थों के उद्धरण—'न हिंस्यात् सर्वभूतानि', 'श्वेतं छागमालभेत वायव्यां दिशि भूतिकामः''ब्रह्मणे ब्राह्मणमालभेत, इन्द्राय क्षत्रियं, मरुद्भ्यो वैश्य, तपसे शूद्रम्।' तात्पर्य यह है कि एक ओर तो वह कहते हैं-'सब जीवों की हिंसा मत करो' किन्तु दूसरी ओर श्वेत बकरे का तथा ब्राह्मणादि के वध का उपदेश देते हैं। ये परस्परविरोधी पापमयी दृष्टियां हैं। समिए–समित–समितिमान्–सम्यक् प्रवृत्त! पाणवहं अणुजाणे : आशय-इस गाथा में बताया गया है—प्राणिवध का अनुमोदनकर्ता भी सर्वदुःखों से मुक्त नहीं हो सकता, तब फिर जो प्राणिवध करते-कराते हैं, वे दुःखों से कैसे मुक्त हो सकते हैं !' दंडं-हिंसारूप दण्ड। १. बृहद्वृत्ति, पत्र २९२ २. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २९२-२९३ (ख) 'चर्म-वल्कलचीराणि, कूर्च-मुण्ड-जटा-शिखाः। व्यपोहन्ति पापानि, शोधकौ तु दयादमौ॥' -वाचकवर्य उमास्वाति
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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