SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 223
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२४ उत्तराध्ययनसूत्र १९. नारीसु नोवगिज्झेजा इत्थीविप्पजहे अणगारे। धम्मं च पेसलं नच्चा तत्थ ठवेज भिक्खू अप्पाणं॥ [१९] स्त्रियों को त्यागने वाला अनगार उन नारियों में आसक्त न हो। धर्म (साधुधर्म) को पेशल (-अत्यन्त कल्याणकारी-मनोज्ञ) जान कर भिक्षु उसी में अपनी आत्मा को स्थापित (संलग्न) कर दे। विवेचन—'नो रक्खसीसु गिज्झेजा'–यहाँ राक्षसी शब्द लाक्षणिक है, वह कामासक्ति या उत्कट वासना का अभिव्यञ्जक है। जिस प्रकार राक्षसी सारा रक्त पी जाती है और जीवन का सत्त्व चूस लेती है, वैसे ही स्त्रियां भी कामासक्त पुरुष के ज्ञानादि गुणों तथा संयमी जीवन एवं धर्म-धन का सर्वनाश कर डालती हैं । स्त्री पुरुष के लिए कामोत्तेजना में निमित्त बनती है। इस दृष्टि से उसे राक्षसी कहा गया है। वैसे ही स्त्री के लिए पुरुष भी वासना के उद्दीपन में निमित्त बनता है, इस दृष्टि से उसे भी राक्षस कहा जा सकता है। गंड-वच्छासु-गंड अर्थात् गाँठ या फोड़ा-गुमड़ा। स्त्रियों के वक्षस्थल में स्थित स्तन मांस की ग्रन्थि या फोड़े के समान होते हैं, इसलिए उन्हें ऐसा कहा गया है। उपसंहार २०. इइ एस धम्मे अक्खाए कविलेणं च विसुद्धपन्नेणं। तरिहिन्ति जे उ काहिन्ति तेहिं आराहिया दुवे लोगा॥-त्ति बेमि। [२०] इस प्रकार विशुद्ध प्रज्ञा वाले कपिल (केवली-मुनिवर) ने इस (साधु) धर्म का प्रतिपादन किया है। जो इसकी सम्यक् आराधना करेंगे, वे संसारसागर को पार करेंगे और उनके द्वारा दोनों ही लोक आराधित होंगे। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-आराहिया-आराधित किये. सफल कर लिये। ॥ कापिलीय : अष्टम अध्ययन समाप्त॥ 000 १. (क) बृहवृत्ति, पत्र २९६ (ख) वाताद्भूतो दहति हुतभुग् देहमेकं नराणाम्, मत्तो नागः, कुपितभुजगश्चैकदेहं तथैव ॥ ज्ञानं शीलं विनय-विभवौदार्य-विज्ञान-देहान, सर्वानर्थान् दहति वनिताऽऽमुष्मिकानैहिकाश्च ॥ अर्थात्-हवा के झोंके से उड़ती हुई अग्नि मनुष्यों के एक शरीर को जलाती है, मतवाला हाथी और क्रुद्ध सर्प एक ही देह को नष्ट करता है, किन्तु कामिनी ज्ञान, शील, विनय, वैभव, औदार्य, विज्ञान और शरीर आदि सभी इहलौकिक-पारलौकिक पदार्थों को जला (नष्ट कर) देती है। -हारीतस्मृति २. बृहवृत्ति, पत्र २९७
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy