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उत्तराध्ययनसूत्र
[२७] (देवलोक से च्यव कर) वह जीव, जहाँ श्रेष्ठ ऋद्धि, द्युति, यश, वर्ण (प्रशंसा), (दीर्घ) और (प्रचुर) सुख होते हैं, उन मनुष्यों (मानवकुलों) में पुन: उत्पन्न होता है ।
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विवेचन–'अत्तट्टे अवरज्झइ नावरज्झइ – भावार्थ ' — जो मनुष्यजन्म मिलने पर भी कामभागों से निवृत्त नहीं होता, उसका आत्मार्थ-आत्मप्रयोजन स्वर्गादि, अपराधी हो जाता है अर्थात् नष्ट जाता 1 अथवा आत्मरूप अर्थ - धन सापराध हो जाता है, आत्मा से जो अर्थ सिद्ध करना चाहता है, वह सदोष बन जाता है। किन्तु जो कामनिवृत्त होता है, उसका आत्मार्थ-स्वर्गादि सापराध नहीं होता, अर्थात् भ्रष्ट नहीं होता। अथवा आत्मरूप अर्थ - धन, नष्ट नहीं होता, बिगड़ता नहीं । १
पूइदेह का भावार्थ — औदारिकशरीर अशुचि है, क्योंकि यह हड्डी, मांस, रक्त आदि से युक्त स्थूल एवं घृणित, दुर्गन्धयुक्त होता है। २
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सुहं च ' के अर्थ — ऋद्धि-स्वर्णादि, द्युति — शरीरकांति, यश-पराक्रम से होने वाली प्रसिद्धि, वर्ण-गाम्भीर्य आदि गुणों के कारण होने वाली प्रशंसा, सुख-यथेष्ट विषय की प्राप्ति होने से हुआ आह्लाद 13 बाल और पण्डित का दर्शन तथा पण्डितभाव स्वीकार करने की प्रेरणा
२८. बालस्स पस्स बालत्तं अहम्मं पडिवज्जिया ।
चिच्चा धम्मं अहम्मिट्ठे नरए उववज्जई ॥
[२८] बाल जीव के बालत्व (अज्ञानता) को तो देखो ! वह अधर्म को स्वीकार कर एवं धर्म का त्याग करके अधर्मिष्ठ बन कर नरक में उत्पन्न होता है ।
२९.
धीरस्स पस्स धीरत्तं सव्वधम्माणुवत्तिणो । चिच्चा अधम्मं धम्मिट्ठे देवेसु उववज्जई ॥
[२९] समस्त धर्मों का अनुवर्तन-पालन करने वाले धीरपुरुष के धैर्य को देखो। वह अधर्म का त्याग करके धर्मिष्ठ बन कर देवों में उत्पन्न होता है ।
३०. तुलियाण बालभावं अबालं चेव पण्डिए । चइऊण बालभावं अबालं सेवए मुणी ॥
—त्ति बेमि ।
[३०] पण्डित (विवेकशील ) साधक बालभाव और अबाल ( - पण्डित) भाव की तुलना (-गुण-दोष की सम्यक् समीक्षा) करके बालभाव को छोड़ कर अबालभाव को अपनाता है।
- ऐसा मैं कहता हूँ । विवेचन— अहम्मं— धर्म के विपक्ष विषयासक्तिरूप अधर्म को, धम्मं विषयनिवृत्तिरूप सदाचार धर्म को । धीरस्स—बुद्धि से सुशोभित, धैर्यवान्, अथवा परीषहों से अक्षुब्ध । सव्वधम्माणुवत्तिणोभादव आदि सभी धर्मों के अनुरूप आचरण करने वाला ।
- क्षमा,
॥ सप्तम अध्ययन समाप्त ॥
१- २. बृहद्वृत्ति, पत्र २८२ ३. (क) सुखबोधा, पत्र १२३ (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २८३ ४. बृहद्वृत्ति, पत्र २८३
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