________________
११३
सप्तम अध्ययन : उरभ्रीय विरताविरत की अपेक्षा से अणुव्रती और सर्वविरत की अपेक्षा से महाव्रती।
सविसेसा–उत्तरोत्तर गुणप्रतिपत्तिरूप विशेषताओं से युक्त।
अदीणा-परीषह और उपसर्ग आदि के आने पर दीनता-कायरता न दिखाने वाले, हीनता की भावना मन में न लोने वाले, पराक्रमी। मूलियं—मौलिक-मूल में होने वाले मनुष्यत्व का। अइच्छिया-अतिक्रमण करके।
निष्कर्ष-विपुल शिक्षा एवं शास्त्रोक्त व्रतधारी अदीन गृहस्थ श्रावक-श्राविका या साधु-साध्वी ही देवगति को प्राप्त करते हैं। वास्तव में मुक्तिगति का लाभ ही परम लाभ है, परन्तु सूत्र त्रिकालविषयक होते हैं। इस समय विशिष्ट संहनन के अभाव में मुक्ति पुरुषार्थ का अभाव है, इसलिए देवगति का लाभ ही यहाँ बताना अभीष्ट है।३ मनुष्यसम्बन्धी कामभोगों की दिव्य कामभोगों के साथ तुलना
२३. जहा कुसग्गे उदगं समुद्देण समं मिणे।
एवं माणुस्सगा कामा देवकामाण अन्तिए॥ [२३] देवों के कामभोगों के समक्ष मनुष्यसम्बन्धी कामभोग वैसे ही क्षुद्र हैं, जैसे कुश (डाभ) के अग्रभाग पर स्थित जलबिन्दु समुद्र की तुलना में क्षुद्र है।
२४. कुसग्गमेत्ता इमे कामा सन्निरुद्धं मि आउए।
___ कस्स हेउं पुराकाउं जोगक्खेमं न संविदे?॥ [२४] मनुष्यभव की इस अतिसंक्षिप्त आयु में ये कामभोग कुश के अग्रभाग पर स्थित जलबिन्दुजितने हैं। (फिर भी अज्ञानी) क्यों (किस कारण से) अपने लिए लाभप्रद योग-क्षेम को नहीं समझता !
२५. इह कामाणियट्टस्स अत्तढे अवरज्झई।
सोच्चा नेयाउयं मग्गं जं भुजो परिभस्सई॥ [२५] यहाँ (मनुष्यजन्म में) (या जिनशासन में) कामभोगों से निवृत्त न होने वाले का आत्मार्थ (-आत्मा का प्रयोजन) विनष्ट हो जाता है। क्योंकि न्याययुक्त मार्ग को सुनकर (स्वीकार करके) भी (भारी कर्म वाला मनुष्य) उससे परिभ्रष्ट हो जाता है।
२६. इह कामणियट्टस्स अत्तढे नावरज्झई।
पूइदेह-निरोहेणं भवे देवे त्ति मे सुयं॥ । [२६] इस मनुष्यभव में कामभोगों से निवृत्त होने वाले का आत्मार्थ नष्ट (सापराध) नहीं होता, क्योंकि वह (लघुकर्मा होने से) पूति-दुर्गन्धियुक्त (अशुचि) औदारिकशरीर का निरोध कर (छोड़कर) देव होता है। ऐसा मैंने सुना है।
२७. इड्ढी जुई जसो वण्णो आउं सुहमणुत्तरं।
भुजो जत्थ मणुस्सेसु तत्थ से उववज्जई॥ १-२-३. बृहद्वृत्ति, पत्र २८२