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सप्तम अध्ययन : उरभ्रीय
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विवेचन–वाणिपुत्रत्रय का दृष्टान्त-प्रस्तुत अध्ययन के अध्ययन-सार में तीन वणिक् पुत्रों का दृष्टान्त संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है। इस दृष्टान्त द्वारा मनुष्यत्व को मूलधन, देवत्व को लाभ और मनुष्यत्व रूप मूलधन खोने से नरक-तिर्यञ्चगति-रूप हानि का संकेत किया गया है।
ववहारे उवमा—यह उपमा व्यवहार–व्यापारविषयक है।
'मूलं' का भावार्थ- जैसे मूल पूंजी हो तो उससे व्यापार करने से उत्तरोत्तर लाभ में वृद्धि की जा सकती है, वैसे ही मनुष्यगति (या मनुष्यत्व) रूप मूल पूंजी हो तो उसके द्वारा पुरुषार्थ करने पर उत्तरोत्तर स्वर्ग-अपवर्गरूप लाभ की प्राप्ति की जा सकती है। परन्तु मनुष्यत्व गतिरूप मूल नष्ट होने पर तो वह मनुष्यत्व-देवत्व-अपवर्ग रूप लाभ खो देता है और नरक-तिर्यञ्चगति रूप हानि ही उसके पल्ले पड़ती है।
जं जिए लोलयासढे - क्योंकि लोलता—जिह्वालोलुपता और शाठ्य-शठता (विश्वास उत्पन्न करके वंचना करना–ठगना), इन दोनों के कारण वह मनुष्यगति-देवगति को तो हार ही चुका होता है। क्योंकि मांसाहारादि रसलोलुपता नरकगति के और वंचना (माया) तिर्यञ्चगति के आयुष्य-बन्ध का कारण है।
वहमूलिया-ये दोनों गतियाँ वधमूलिका हैं। वधमूलिका के दो अर्थ-(१) वध शब्द से उपलक्षण से महारम्भ, महापरिग्रह, असत्यभाषण, माया आदि इनके मूल कारण हैं, इसलिए ये वधमूलिका हैं । अथवा (२) वध-विनाश जिसके मूल आदि में है, वे वधमूलिका हैं। वध शब्द से छेदन, भेदन, अतिभारारोपण आदि का ग्रहण होता है। वस्तुतः नरक और तिर्यञ्चगति में वध आदि आपत्तियाँ हैं ।
उम्मज्जा-उन्मज्जा का भावार्थ-नरकगति एवं तिर्यञ्चगति से भविष्य में चिरकाल तक उन्मज्जा अर्थात्-निर्गमन—निकलना दुर्लभ–दुष्कर है। यह कथन प्रायिक है, क्योंकि कई लघुकर्मा तो नरकतिर्यञ्चगति से निकल कर एक भव में ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
सपेहाए-सम्प्रेक्ष्य, तुलिया-तोलयित्वा तात्पर्य—इस प्रकार लोलुपता और वंचना से देवत्व और मनुष्यत्व को हारे हुए बालजीव को सम्यक् प्रकार से देख-विचार करके तथा नरक-तिर्यञ्चगतिगामी बालजीव को एवं इसके विपरीत मनुष्य-देवगतिगामी पण्डित को गुणदोषवत्ता की दृष्टि से बुद्धि की तुला पर तोल कर।
"वेमायाहिं सिक्खाहि. "-विमात्रा शिक्षा का अर्थ यहाँ विविध-मात्राओं अर्थात् परिणामों वाली शिक्षाएँ हैं। जैसे किसी गृहस्थ का प्रकृतिभद्रता आदि का अभ्यास कम होता है, किसी का अधिक
और किसी का अधिकतर होता है। इस तरह विविध तरतमताओं (डिग्रियों) में मानवीय गुणों के अभ्यास, शिक्षाओं से। शिक्षा का यह अर्थ शान्त्याचार्य ने किया है। चूर्णि में शिक्षा का अर्थ 'शास्त्रकलाओं में कौशल' किया गया है।६
___ गिहिसुव्वया : 'गृहिसुव्रता'-शब्द के तीन अर्थ- (१) गृहस्थों के सत्पुरुषोचित व्रतों-गुणों से युक्त, (२) गृहस्थ सज्जनों के प्रकृतिभद्रता, प्रकृतिविनीतता, सानुक्रोशता (सदयहृदयता) एवं अमत्सरता
१. उत्तरा, मूल अ०६ गा०१५-१६, २. (अ) बृहवृत्ति, पत्र २८० (ख) चूर्णि, पृ० १६४ (ग) स्थानांग, स्था० ४/४/३७३ ३-४-५. बृहद्वृत्ति, पत्र २८१ ६. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २८१ (ख) 'शिक्षा नाम शास्त्रकलासु कौशलम्।'-उत्त० चूर्णि, पृ० १६५