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उत्तराध्ययनसूत्र [१६] (यथा-) मनुष्यपर्याय की प्राप्ति मूलधन है। देवगति लाभरूप है। मनुष्यों को नरक और तिर्यञ्चगति प्राप्त होना, निश्चय ही मूल पूंजी का नष्ट होना है।
१७. दुहओ गई बालस्स आवई वहमूलिया।
देवत्तं माणुसत्तं च जं जिए लोलयासढे॥ ___[१७] बालजीव की दो प्रकार की गति होती है-(१) नरक और (२) तिर्यञ्च, जहाँ उसे वधमूलक कष्ट प्राप्त होता है, क्योंकि वह लोलुपता और शठता (वंचकता) के कारण देवत्व और मनुष्यत्व तो पहले ही हार चुका होता है।
१८. तओ जिए सई होइ विहं दोग्गइं गए।
दुल्लहा तस्स उम्मजा अद्धाए सुचिरादवि॥ [१८] (नरक और तिर्यञ्च, इन) दो प्रकार की दुर्गति को प्राप्त (अज्ञानी जीव) (देव और मनुष्यगति को) सदा हारा हुआ (पराजित) ही होता है, (क्योंकि भविष्य में) दीर्घकाल तक उसका (पूर्वोक्त) दोनों दुर्गतियों से निकलना दुर्लभ है।
१९. एवं जियं सपेहाए तुलिया बालं च पंडियं।
मूलियं ते पवेसन्ति माणुसं जोणिमेन्ति जे॥ [१९] इस प्रकार पराजित हुए बालजीव की सम्यक् प्रेक्षा (विचारणा) करके तथा बाल एवं पण्डित की तुलना करके जो मानुषी योनि में आते हैं; वे मूलधन के साथ (लौटे हुए वणिक् की तरह)
२०. वेमायाहिं सिक्खाहिं जे नरा गिहिसुव्वया।
उवेन्ति माणुसं जोणिं कम्मसच्चा हु पाणिणो॥ [२०] जो मनुष्य विविध परिणाम वाली शिक्षाओं से (युक्त होकर) घर में रहते हुए भी सुव्रती हैं, वे मनुष्य-सम्बन्धी योनि को प्राप्त होते हैं; क्योंकि प्राणी कर्मसत्य होते हैं; (अर्थात्-स्वकृत कर्मों का फल अवश्य पाते हैं)।
२१. जेसिं तु विउला सिक्खा मूलियं ते अइच्छिया।
सीलवन्ता सवीसेसा अद्दीणा जन्ति देवयं॥ [२१] और जिनकी शिक्षाएँ (ग्रहण-आसेवनात्मिका) विपुल (सम्यक्त्वयुक्त अणुव्रत-महाव्रतादि विषयक होने से विस्तीर्ण) हैं, वे शीलवान् (देश-सर्वविरति-चारित्रवान्) एवं उत्तरोत्तर गुणों से युक्त हैं, वे अदीन पुरुष मूलधनरूप मनुष्यत्व से आगे बढ़ कर देवत्व को प्राप्त होते हैं।
२२. एवमद्दीणवं भिक्खं अगारि च वियाणिया।
__ कहण्णु जिच्चमेलिक्खं जिच्चमाणे न संविदे॥ [२२] इस प्रकार दैन्यरहित भिक्षु और गृहस्थ को (देवत्वप्राप्ति रूप लाभ से युक्त) जानकर कैसे कोई विवेकी पुरुष उक्त लाभ को हारेगा (खोएगा)? विषय-कषायादि से पराजित होता हुआ क्या वह नहीं जानता कि मैं पराजित हो रहा हूँ (देवगतिरूप धनलाभ को हार रहा हूँ?)