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उत्तराध्ययनसूत्र
पच्चुप्पण्णपरायणे-प्रत्युत्पन्न अर्थात् वर्तमान में परायण—निष्ठ । अर्थात्—'एतावानेव लोकोऽयं यावानिन्द्रियगोचरः'—जितना इन्द्रियगोचर है, इतना ही यह लोक है। इस प्रकार का नास्तिकमतानुसारी परलोकनिरपेक्षा
अयव्व = अय = अज शब्द अनेकार्थक-इसके बकरा, भेड़, मेंढा, पशु आदि नाना अर्थ होते हैं। यहाँ प्रसंगानुसार इसका अर्थ-भेड़ या मेंढ़ा है, क्योंकि इसके स्थान में एड़क और उरभ्र शब्द यहाँ प्रयुक्त
आसुरियं दिसं—दो रूप : दो अर्थ (१) असूर्य या असूरिक-जहाँ सूर्य न हो, ऐसा प्रदेश (दिशा)। जैसे कि ईशावास्योपनिषद् में आत्महन्ता जनों को अन्धतमस् से आवृत असूर्य लोक में जाना बताया गया है। (२) असुर अर्थात् रौद्रकर्म करने वाला। असुर की जो दिशा हो, उसे असुरीय कहते हैं। इसका तात्पर्यार्थ 'नरक' है, क्योंकि नरक में परमाधार्मिक असुर (नरकपाल) रहते हैं। नरक में सूर्य न होने के कारण वह तमसाच्छन्न रहता है तथा वहाँ असुरों का निवास है, इसलिए आसुरिय दिसं का भावार्थ 'नरक' ही ठीक है। अल्पकालिक सुखों के लिए दीर्घकालिक सुखों को हारने वाले के लिए दो दृष्टान्त
११. जहा कागिणिए हेउं सहस्सं हारए नरो।
अपत्थं अम्बगं भोच्चा राया रजं तु हारए॥ [११] जैसे एक (क्षुद्र) काकिणी के लिए मूर्ख मनुष्य हजार (कार्षापण) खो देता है और जैसे राजा अपथ्य रूप एक आम्रफल खा कर बदले में राज्य को गँवा बैठता है, (वैसे ही जो व्यक्ति मनुष्यसम्बन्धी भोगों में लुब्ध हो जाता है, वह दिव्य भोगों को हार जाता है।)
१२. एवं माणुस्सगा कामा देवकामाण अन्तिए।
सहस्सगुणिया भुजो आउं कामा य दिव्विया॥ [१२] इसी प्रकार देवों के कामभोगों के समक्ष मनुष्यों के कामभोग उतने ही तुच्छ हैं, (जितने कि हजार कार्षापणों के समक्ष एक काकिणी और राज्य की अपेक्षा एक आम।) (क्योंकि) देवों का आयुष्य और कामभोग मनुष्य के आयुष्य और भोगों से सहस्रगुणा अधिक है।
१३. अणेगवासानउया जा सा पनवओ ठिई।
___जाणि जीयन्ति दुम्मेहा ऊणे वाससयाउए॥ [१३] 'प्रज्ञावान् साधक की देवलोक में अनेक नयुत वर्ष (असंख्यकाल) की स्थिति होती है,'यह जान कर भी दुर्बुद्धि (विषयों से पराजित मानव) सौ वर्ष से भी कम आयुष्यकाल में उन दीर्घकालिक दिव्य सुखों को हार जाता है। १. बृहद्वृत्ति, पत्र २७५ । २. (क) 'अजः पशुः स चेह प्रक्रमादुरभ्रः।'-बृहद्वृत्ति, पत्र २७५ (ख) पाइयसद्दमहण्णवो' में देखें 'अय' शब्द, पृ.६९ ३. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २७६ (ख) उत्तरा० चूर्णि, पृ. १६१ (ग) "असुर्या नाम ते लोकाः अन्धेन तमसावृताः।
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये केचनात्महनो जनाः॥" -ईशावास्योपनिषद्