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सप्तम अध्ययन : उरभ्रीय
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८. असणं सयणं जाणं वित्तं कामे य भुंजिया।
दुस्साहडं धणं हिच्चा बहुं संचिणिया रयं॥ ९. ततो कम्मगुरू जन्तू पच्चुप्पन्नपरायणे।
अय व्व आगयाएसे मरणन्तंमि सोयई॥ [८-९] आसन, शयन, वाहन (यान), धन एवं अन्य काम-भोगों को भोग कर, दुःख से बटोरा हुआ धन छोड़ कर बहुत कर्मरज संचित करके; केवल वर्तमान (या निकट) को ही देखने में तत्पर, तथा कर्मों से भारी बना हुआ प्राणी मरणान्तकाल में वैसे ही शोक करता है, जैसे कि मेहमान के आने पर मेमना करता है।
१०. तओ आउपरिक्खीणे चुया देहा विहिंसगा।
आसुरियं दिसं बाला गच्छन्ति अवसा तमं॥ [१०] तत्पश्चात् विविध प्रकार से हिंसा करने वाले बाल जीव, आयुष्य के परिक्षीण होने पर जब शरीर से पृथक् (च्युत) होते हैं, तब वे (कृतकर्मों से) विवश हो कर अन्धकारपूर्ण आसुरी दिशा (नरक) की ओर जाते हैं।
विवेचन कण्हुहरे-कन्नुहरे : दो रूप : दो अर्थ-(१) कुतोहर:-किससे या कहाँ से द्रव्य का हरण करूं? अथवा (२) कन्नुहर:-किसके द्रव्य का हरण करूं? सदा इस प्रकार के दुष्ट अध्यवसाय वाला। ___'आउयं नरए कंखे' का आशय-नरक के आयुष्य की आकांक्षा करता है, इसका आशय हैजिनसे नरकायुष्य का बन्ध हो, ऐसे पापकर्म करता है।
दुःस्साहडं धणं हिच्चा-दुःसंहृतं धनं : चार अर्थ-(१) समुद्रतरण आदि विविध प्रकार के दु:खों को सह कर इकट्ठे किये हुए धन को, (२) दुःस्वाहृतम् धनं-दूसरों को दु:खी करके दुःख से स्वयं उपार्जित धन, (३) दुःसंहृतम्-दुष्ट कार्य (जूआ, चोरी, व्यभिचारादि) करके उपार्जित धन, (४) अथवा दु:ख से प्राप्त (मिला) हुआ धन । हिच्चा-हित्वा—दो अर्थ-(१)विविध भोगोपभोगों में व्यय करकेछोड़ कर, अथवा (२) द्यूत आदि विविध दुर्व्यसनों में खोकर। आचार्य नेमिचन्द्र ने इसी का समर्थक एक श्लोक उद्धृत किया है
द्यूतेन मद्येन पण्यांगनाभिः, तोयेन भूपेन हुताशनेन।
मलिम्लुचेनांऽशहरेण नाशं, नीयेत वित्तं व धने स्थिरत्वम्? जूआ, मद्यपान, वेश्यागमन, जल, राजा, अग्नि आदि के द्वारा आंशिक हरण होने से धन का नाश हो जाता है, फिर धन की स्थिरता कहाँ?'३ १. (क) उत्तरा. टीका, अ. रा. कोष, भा. २ । ८५२ (ख) उत्तरज्झयणाणि अनुवाद (मु. नथमलजी) अ.७, पृ. ९४
(ग) उत्तरा. (गुजराती अनुवाद) पत्र २८३ २. (क) उत्तरा. टीका, अ. रा. कोष, भा. २ / ८५२ (ख) उत्तरा. (गुजराती अनुवाद) पृ. २८३ ३. (ख) उत्तरा. प्रियदर्शिनी टीका (पू. घासीलालजी म.) भा. २, पृ. २४२
(ख) उत्तरा. टीका, अ. रा. कोष, भा. २/ ८५२ (ग) सुखबोधा, पत्र ११७