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________________ उत्तराध्ययनसूत्र परिवूढे – युद्धादि में समर्थ, जायमेए – जिसकी चर्बी बढ़ गई है, अतः जो मोटाताजा हो गया है। सयंगणे : दो रूप — (१) स्वांगणे —— अपने घर के आंगन में, (२) विषयांगणे — इन्द्रिय-विषयों की गणनाचिन्तन करता हुआ । ' दुही : दो रूप : दो भावार्थ - (१) दुःखी - समस्त सुखसाधनों का उपभोग करता हुआ भी वह हृष्टपुष्ट मेमना इसलिए दु:खी है कि जैसे वध्य— मारे जाने वाले व्यक्ति को सुसज्जित करना, संवारना वस्तुतः उसे दुःखी करना ही है, वैसे ही इस मेमने को अच्छे-अच्छे पदार्थ खिलाना-पिलाना वस्तुतः दुःखप्रद ही है। (२) अदुही- अदुःखी - बृहद्वृत्ति में 'सेऽदुही' में अकार को लुप्त मानकर 'अदुही' की व्याख्या की गई है। वह मेमना (स्वयं को) अदु:खी-सुखी मान रहा था, क्योंकि उसे अच्छे-अच्छे पदार्थ खिलाये जाते थे तथा संभाला जाता था। 1 १०६ दुःखी अर्थ ही यहाँ अधिक संगत है। इसके समर्थन में नियुक्ति की एक गाथा भी प्रस्तुत है आउरचिन्नाई एयाई, जाई चरइ नंदिओ । सुक्कतणेहिं लाढाहि एवं दीहाउलक्खणं ॥ गौ ने अपने बछड़े से कहा- 'वत्स! यह नंदिक (-मेमना) जो खा रहा है, वह रोगी का चिह्न है । रोगी अन्तकाल में जो कुछ पथ्य-कुपथ्य मांगता है, वह उसे दे दिया जाता है, सूखे तिनकों से जीवन चलाना दीर्घायु का लक्षण है । २ नरकाकांक्षी एवं मरणकाल में शोकग्रस्त जीव की दशा- मेंढे के समान हिंसे बाले मुसावाई अद्धाणंमि विलोवए । अन्नदत्तहरे तेणे माई कण्हुहरे सढे ॥ इत्थीविसयगिद्धे य महारंभ परिग्गहे । भुंजमाणे सुरं मंसं परिवूढे परंदमे ॥ ७. अयकक्कर- - भोई य तुंदिल्ले चियलोहिए । आउयं नरए कंखे जहाएसं व एलए ॥ [५-६-७] हिंसक, अज्ञानी, मिथ्याभाषी, मार्ग में लूटने वाला (लुटेरा), दूसरों की दी गई वस्तु को बीच में ही हड़पने वाला, चोर, मायावी, कुतोहर (कहाँ से धन-हरण करूं?, इसी उधेड़बुन में सदा लगा रहने वाला), शठ (धूर्त), स्त्री एवं रूपादि विषयों में गृद्ध, महारम्भी, महापरिग्रही, मदिरा और मांस का उपभोग करने वाला, हृष्टपुष्ट, दूसरों को दबाने - सताने वाला, बकरे की तरह कर्कर शब्द करते हुए मांसादि अभक्ष्य खाने वाला, मोटी तोंद और अधिक रक्त वाला व्यक्ति उसी प्रकार नरक के आयुष्य की आकांक्षा करता है, जिस प्रकार मेमना मेहमान की प्रतीक्षा करता है । २. ५. ६. १ : (क) बृहद्वृत्ति, पत्र २७२ (ख) उत्तराध्ययन चूर्णि, पृ. १५८ (ग) उत्तरा टीका, अ. रा. कोष, भा. २ / ८५२ (क) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. १५९ (ख) सुखबोधा, पत्र ११७ (ग) सेऽदुहित्ति अकार प्रश्लेषात् स इत्युरभ्रोऽदुःखी सुखी सन् । - बृहद्वृत्ति, पत्र २७३
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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