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षष्ठ अध्ययन : क्षुल्लक-निर्ग्रन्थीय
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पिंडस्स पाणस्स-व्याख्याएँ-(१) साधु के लिए भिक्षादान के प्रसंग में अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य, यों चारों प्रकार के आहार का उल्लेख आता है अत: चूर्णिकार ने 'पिंड' शब्द को अशन, खाद्य और स्वाद्य. इन तीनों का और 'पान' शब्द को 'पान' का सचक माना है। (२) वत्तिकारों के अनसार मनि के लिए उत्सर्ग रूप में खाद्य और स्वाद्य का ग्रहण-सेवन अयोग्य है, इसलिए पिण्ड अर्थात् ओदनादि और पान यानी आयामादि (भोजन और पान) का ही यहाँ ग्रहण किया गया है।
सन्निहिं-घृत-गुडादि को दूसरे दिन के लिए संग्रह करके रखना सन्निधि है। निशीथचूर्णि में दूध, दही आदि थोड़े समय के बाद विकृत हो जाने वाले पदार्थों के संग्रह को सन्निधि और घी, तेल आदि चिरकाल तक न बिगड़ने वाले पदार्थों के संग्रह को संचय कहा है।
'पक्खी पत्तं समादाय निखेक्खो परिव्वए' : दो व्याख्याएँ (१) चूर्णि के अनुसार-जैसे पक्षी अपने पत्र (पंखों) को साथ लिए हुए उड़ता है, उसे पीछे की कोई अपेक्षा—चिन्ता नहीं होती, वैसे ही साधु अपने पात्र आदि उपकरणों को जहाँ जाए वहाँ साथ में ले जाए, कहीं रखे नहीं; तात्पर्य यह है कि पीछे की चिन्ता से मुक्त-निरपेक्ष होकर विहार करे। (२) बृहद्वृत्ति के अनुसार-पक्षी दूसरे दिन के लिए संग्रह न करके निरपेक्ष होकर उड़ जाता है, वैसे ही भिक्षु निरपेक्ष होकर रहे और संयमनिर्वाह के लिए पात्र लेकर भिक्षा के लिए पर्यटन करे–मधुकरवृत्ति से निर्वाह करे, संग्रह की अपेक्षा न रखे—चिन्ता न करे।३
इन प्रमादों से बचे-प्रस्तुत गाथा ११ से १६ तक में निम्नोक्त प्रमादों से बचने का निर्देश है-(१) शरीर और उसके रूप-रंग आदि पर मन-वचन-काया से आसक्त न हो, शरीरासक्ति प्रमाद है। शरीरासक्ति से मनुष्य अनेक पापकर्म करता है और विविध योनियों में परिभ्रमण करता है, यह लक्ष्य रख कर सदैव अप्रमत्त रहे। (२) शरीर से ऊपर उठ कर मोक्षलक्ष्यी या आत्मलक्ष्यी रहे, शारीरिक विषयाकांक्षा ने रखे अन्यथा प्रमादलिप्त हो जाएगा। (३) मिथ्यात्वादि कर्मबन्धन के कारणों से बचे, जब भी कर्मबन्धन काटने का अवसर आए, न चूके। (४) संयमयात्रा के निर्वाह के लिए आवश्यकतानुसार उचित मात्रा में आहार ग्रहणसेवन करे, अनावश्यक तथा अधिक मात्रा में आहार का ग्रहण-सेवन करना प्रमाद है। (५) संग्रह करके रखना प्रमाद है, अतः लेशमात्र भी संग्रह न रखे, पक्षी की तरह निरपेक्ष रहे । जब भी आहार की आवश्यकता हो तब १. (क) 'असण-पाण-खाइम-साइमेणं..........पडिलाभेमाणस्स विहरित्तए।'-उपासकदसा. २
(ख) उत्तरा. चूर्णि., पृ. १५५: 'पिण्डग्रहणात् त्रिविधः आहारः।' (ग) बृहद्वृत्ति, पत्र २६९ : 'पिण्डस्य ओदनादेरन्नस्य, पानस्य च'-आयामादेः खाद्य-स्वाद्यानुपादानं च यते: प्रायस्तत्
परिभोगासम्भवात्। (घ) 'खाद्य-स्वाद्ययोरुत्सर्गतो यतीनामयोग्यत्वात् पानभोजनयोर्ग्रहणम्।' –स्थानांग. ९/६६३, वृत्ति ४४५
(ड.) सुखबोधा, पत्र ११४ २. (क) सन्निधिः-प्रातरिदं भविष्यतीत्याद्यभिसन्धितोऽतिरिक्ताऽन्नादि-स्थापनम्। __ (ख) निशीथचूर्णि, उद्देशक ८, सू. १८ (ग) उत्तरा. टीका, अ. रा. कोष, भा. ३, पृ. ७५२ ३. (क) 'यथाऽसौ पक्षी तं पत्रभारं समादाय गच्छति, एवमुपकरणं भिक्षुरादाय णिरवेक्खो परिव्वए।'-उ. चू. पृ.१५६ (ख) 'पक्षीव निरपेक्षः, पात्रं पतद्ग्रहादिभाजनमर्थात् तन्निर्योगं च समादाय व्रजेत्-भिक्षार्थं पर्यटेत् । इदमुक्तं भवतिमधुकरवृत्या हि तस्य निर्वहणं, तत्किं तस्य सन्निधिना?'
-बृहद्वृत्ति, पत्र २७०