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________________ १०० उत्तराध्ययनसूत्र [१५] अवसरज्ञ (कालकांक्षी) साधक कर्मों के (मिथ्यात्व, अविरति आदि) हेतुओं को (आत्मा से) पृथक् करके (संयममार्ग में) विचरण करे। गृहस्थ के द्वारा स्वयं के लिए निष्पन्न आहार और पानी (संयमनिर्वाह के लिए आवश्यकतानुसार उचित) मात्रा में प्राप्त करके सेवन करे। १६. सन्निहिं च न कुव्वेज्जा लेवमायाए संजए। पक्खी पत्तं समादाय निरवेक्खो परिव्वए॥ [१६] संयमी साधु लेशमात्र भी संचय न करे—(बासी न रखे); पक्षी के समान संग्रह-निरपेक्ष रहता हुआ मुनि पात्र लेकर भिक्षाटन करे। १७. एसणासमिओ लजू गामे अणियओ चरे। अप्पमत्तो पमत्तेहिं पिंडवायं गवेसए॥ [१७] एषणासमिति के उपयोग में तत्पर (निर्दोष आहार-गवेषक) लज्जावान् (संयमी) साधु गाँवों (नगरों आदि) में अनियत (नियतनिवासरहित) होकर विचरण करे। अप्रमादी रहकर वह गृहस्थों (-विषयादिसेवनासक्त होने से प्रमत्तों) से (निर्दोष) पिण्डपात (भिक्षा) की गवेषणा करे। विवेचन बहिया उड्ढं च': दो व्याख्याएँ -(१) 'देह से ऊर्ध्व—परे कोई आत्मा नहीं है, देह ही आत्मा है' इस चार्वाकमत के निराकरण के लिए शास्त्रकार का कथन है-देह से ऊर्ध्व-परे आत्मा है, उसको, (२) संसार से बहिर्भूत और सबसे ऊर्ध्ववर्ती—लोकाग्रस्थान-मोक्ष को। कालकंखी—तीन अर्थ-(१) चूर्णि के अनुसार-जब तक आयुष्य है तब तक पण्डितमरण के काल की आकांक्षा करने वाला—भावार्थ-आजीवन संयम की इच्छा करने वाला, (२) कालस्वक्रियानुष्ठान के अवसर की आकांक्षा करने वाला और (३) अवसरज्ञ। मन-वचन-काया से शरीरासक्ति-मन से—यह सतत चिन्तन करना कि हम सुन्दर, बलिष्ठ, रूपवान् कैसे बनें? वचन से—रसायनादि से सम्बन्धित प्रश्न करते रहना तथा काया से—सदा रसायनादि तथा विगय आदि का सेवन करते रहकर शरीर को बलिष्ठ बनाने का प्रयत्न करना शरीरासक्ति है। सव्वदिसं-यहाँ दिशा शब्द से १८ भाव दिशाओं का ग्रहण किया गया है-(१) पृथ्वीकाय, (२) अप्काय, (३) तेजस्काय, (४) वायुकाय, (५) मूलबीज, (६) स्कन्धबीज, (७) अग्रबीज, (८) पर्वबीज, (९) द्वीन्द्रिय (१०) त्रीन्द्रिय, (११) चतुरिन्द्रिय, (१२) पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक, (१३) नारक, (१४) देव, (१५) समूर्च्छनज, (१६) कर्मभूमिज, (१७) अकर्मभूमिज, (१८) अन्तर्वीपज।। १. (क) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. १५५ (ख) बृहवृत्ति पत्र २६८ (ग) सुखबोधा, पत्र ११४ २. (क) उत्तरा. चूर्णि ११५ (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २६८-२६९ (ग) उत्त. टीका, अ. रा. कोष, भा. ३, पृ. २७३ ३. सुखबोधा (आचार्य नेमिचन्द्रकृत), पत्र ११३-११४ ४. (क) उत्त. चूर्णि, पृ. १५४ (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २६८ (ग) पुढवि १ जल २ जलण ३ वाऊ ४ मूला ५ खंध ६ ग्ग ७ पोरवीया य ८। बि ९ ति १० चउ ११ पंचिदिय-तिरि १२ नारया १३ देवसंघाया १४ ॥१॥ सम्मुच्छिम १५ कम्माकम्मगा य १६-१७ मणुआ तहंतरद्दीवा य १८। भावदिसादिस्सइ जं, संसारी नियमे आहिं॥२॥ -अ.रा. कोष ३/७५२ २
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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