SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षष्ठ अध्ययन : क्षुल्लक-निर्ग्रन्थीय हो सकता है, क्रिया या आचरण की कोई आवश्यकता नहीं,.(२) लच्छेदार भाषा में अपने सिद्धान्तों को प्रस्तुत कर देने मात्र से कल्याण हो जाता है, (३) विविध भाषाएँ सीखकर अपने-अपने धर्म के शास्त्रों को उसकी मूल-भाषा में उच्चारण करने मात्र से अथवा विविध शास्त्रों को सीख लेने-रट लेने मात्र से पापों या दुःखों से रक्षा हो जाएगी। परन्तु भगवान् ने इन तीनों भ्रान्त एवं अविद्याजनित मान्यताओं का खण्डन किया है। सांख्य आदि का एकान्त ज्ञानवाद है पंचविंशतितत्वज्ञो, यत्रकुत्राश्रमे रतः। शिखी मुण्डी जटी वाऽपि मुच्यते नात्र संशयः॥ अर्थात् 'शिखाधारी, मुण्डितशिर, जटाधारी हो अथवा जिस किसी भी आश्रम में रत व्यक्ति सिर्फ-२५ तत्त्वों का ज्ञाता हो जाए तो निःसन्देह वह मुक्त हो जाता है। २ आयरियं- तीन रूप तीन अर्थ—(१) चूर्णि में आचरित अर्थात्-आचार, (२) बृहद्वृत्ति में आर्य रूप मानकर अर्थ किया गया है और (३) सुखबोधा में आचारिक रूप मानकर अर्थ किया हैअपने-अपने आचार में होने वाला अनष्ठान । विविध प्रमादों से बचकर अप्रमत्त रहने की प्रेरणा १२. जे केई सरीरे सत्ता वण्णे रूवे य सव्वसो। मणसा कायवक्केणं सव्वे ते दुक्खसंभवा॥ [१२] जो मन, वचन और काया से शरीर में तथा वर्ण और रूप (आदि विषयों) में सब प्रकार से आसक्त हैं, वे सभी अपने लिए दुःख उत्पन्न करते हैं। १३. आवन्ना दीहमद्धाणं संसारम्मि अणंतए। तम्हा सव्वदिसं पस्स अप्पमत्तो परिव्वए॥ [१३] वे (ज्ञानवादी शरीरासक्त पुरुष) इस अनन्त संसार में (विभिन्न भवभ्रमण रूप) दीर्घ पथ को अपनाए हुए हैं। इसलिए (साधक) सब (भाव-)दिशाओं (जीवों के उत्पत्तिस्थानों) को देख कर अप्रमत्त होकर विचरण करे। १४. बहिया उड्ढमादाय नावकंखे कयाइ वि। पुव्वकम्म-खयट्ठाए इमं देहं समुद्धरे॥ [१४] (वह संसार से) ऊर्ध्व (मोक्ष का लक्ष्य) रख कर चलने वाला कदापि बाह्य (विषयों) की आकांक्षा न करे। (साधक) पूर्वकृतकर्मों के क्षय के लिए ही देह को धारण करे। १५. विविच्च कम्मुणो हेर्ड कालखी परिव्वए। मायं पिंडस्स पाणस्स कडं लभ्रूण भक्खए॥ १. उत्तरा. टीका, अ. ६, अ. रा. कोष ३/७५१ २. सांख्यदर्शन, सांख्यतत्त्वकौमुदी ३. (क) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ. १५२; 'आचारे निविष्ट आचरितं—आचरणीयं वा' (ख) बृहवृत्ति, पत्र २६६ (ग) आचारिकं-निज-निजाऽचारभवमनुष्ठानम्।-सुखबोधा, पत्र ११३
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy