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उत्तराध्ययन सूत्र
अप्पणो पाए दिनं-अपने पात्र में गृहस्थों द्वारा दिया हुआ। इस पंक्ति से यह भी सूचित होता है, कतिपय अन्यतीर्थिक साधु संन्यासियों या गैरिकों की तरह निर्ग्रन्थि साधु गृहस्थ के बर्तनों में भोजन न करे। इसका कारण दशवैकालिक सूत्र में—दो मुख्य दोषों (पश्चात्कर्म एवं पुरःकर्म) का लगना बताया है।
तात्पर्य—दूसरी से सातवीं गाथा तक में अविद्याओं के विविध रूप और पण्डित एवं सम्यग्दृष्टि साधक को स्वयं समीक्षा—प्रेक्षा करके इनका वस्तुस्वरूप जानकर इनसे सर्वथा दूर रहने का उपदेश दिया है। अविद्याजनित मान्यताएँ
९. इहमेगे उ मनन्ति अप्पच्चक्खाय पावगं।
___ आयरियं विदित्ताणं सव्व दुक्खा विमुच्चई॥ [९] इस संसार में (या आध्यात्मिक जगत् में) कुछ लोग यह मानते हैं कि पापों का प्रत्याख्यान (त्याग) किये बिना ही केवल आर्य (-तत्त्वज्ञान) अथवा आचार (-स्व-स्वमत के बाह्य आचार) को जानने मात्र से ही मनुष्य सभी दु:खों से मुक्त हो सकता है।
१०. भणन्ता अकरेन्ता य बन्ध-मोक्खपइण्णिणो।
वाया-विरियमेत्तेण समासासेन्ति अप्पयं॥ [१०] जो बन्ध और मोक्ष के सिद्धान्तों की स्थापना (प्रतिज्ञा) तो करते हैं, (तथा ज्ञान से ही मोक्ष होता है, इस प्रकार से) कहते बहुत कुछ हैं, तदनुसार करते कुछ नहीं हैं, वे (ज्ञानवादी) केवल वाणी की वीरता से अपने आपको (झूठा) आश्वासन देते रहते हैं।
११. न चित्ता तायए भासा कओ विजाणुसासणं?
विसन्ना पाव-कम्मेहिं बाला पंडियमाणिणो॥ [११] विभिन्न भाषाएँ (पापों या दुःखों से मनुष्य की) रक्षा नहीं करतीं; (फिर व्याकरण-न्यायमीमांसा आदि) विद्याओं का अनुशासन (शिक्षण) कहाँ सुरक्षा दे सकता है? जो इन्हें संरक्षक (त्राता) मानते हैं, वे अपने आपको पण्डित मानने वाले (पण्डितमानी) अज्ञानी(अतत्त्वज्ञ) जन पापकर्मरूपी कीचड़ में (विविध प्रकार से) फंसे हुए हैं।
विवेचन अविद्याजनित भ्रान्त मान्यताएँ-प्रस्तुत तीन गाथाओं में उस युग के दार्शनिकों की भ्रान्त मान्यताएँ प्रस्तुत करके शास्त्रकार ने उनका खण्डन किया है-(१) एकान्त ज्ञान से ही मोक्ष (सर्व दु:ख मुक्ति) १. (क) उत्तरा. चूर्णि, पृ० १५ २...आत्मीयपात्रगृहणात् माभूत् कश्चित् परपात्रे गृहीत्वा भक्षयति तेन पात्रग्रहणं, ण सो
परिग्गह इति।' (ख) पात्रग्रहणं तु व्याख्याद्वयेऽपि माभूत निस्परिग्रहतया पात्रस्याऽप्यग्रहणमिति कस्यचिद् व्यामोह इति ख्यापनार्थ,
तदपरिग्रहे हि तथाविधलब्धाद्यभावेन पाणिभोक्तत्वाभावाद् गृहिभाजन एवं भोजनं भवेत् तत्र च बहुदोषसंभवः। तथा च शय्यम्भवाचार्यपच्छाकम्मं पुरेकम्मं सिया तत्थ ण कप्पई। एयमटुंण भुजंति, णिग्गंथा गिहिभायणे॥ -दशवैकालिक ६/५३ -बृहद्वत्ति, पत्र २६६