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षष्ठ अध्ययन : क्षुल्लक-निर्ग्रन्थीय
(२) समितदर्शन — जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया हो। दोनों का फलितार्थ है— सम्यग्दृष्टि[-सम्पन्न साधक । यहाँ 'बनकर' इस पूर्वकालिक क्रिया का अध्याहार लेना चाहिए।
गेहिं सिणेहं च—दो अर्थ — (१) बृहद्वृत्ति के अनुसार — गृद्धि का अर्थ — रसलम्पटता और स्नेह का अर्थ है— पुत्र - स्त्री आदि के प्रति राग । (२) चूर्णिकार के अनुसार – गृद्धि का अर्थ है— द्रव्य, गाय, भैंस, बकरी, भेड़, धन, धान्य आदि में आसक्ति और स्नेह का अर्थ है— बन्धु - बान्धवों के प्रति ममत्व । प्रस्तुत गाथा (४) में साधक को विद्या ( वस्तुतत्त्वज्ञान) के प्रकाश में आसक्ति, ममत्व, राग, मोह, पूर्वसंस्तव आदि अविद्याजनित सम्बन्धों को मन से भी त्याग देने चाहिए । यही तथ्य पाँचवीं गाथा में झलकता है।
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कामरूवी—व्याख्या—स्वेच्छा से मनचाहा रूप धारण करने वाला । सांसारिक भोग्य पदार्थों के प्रति ममत्वत्याग करने पर इहलोक में वैक्रियलब्धिकारक अर्थात् अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व आदि अष्टसिद्धियों का स्वामी होगा तथा निरतिचार संयम पालन करने से परलोक मेंदेवभव में वैक्रियादिलब्धिमान् होगा। गौ- अश्व आदि सांसारिक भोग्य पदार्थों का त्याग क्यों किया जाए? इसका समाधान अगली गाथा में दिया गया है—'नालं दुक्खाउ मोयणे' – ये दुःखों से मुक्त कराने में समर्थ नहीं हैं । ३
थावरं जंगमं — स्थावर का अर्थ है अचल — गृह आदि साधन तथा जंगम का अर्थ है-चल, पुत्र, मित्र, भृत्य आदि पूर्वाश्रय स्नेहीजन । ४
पियायए : तीन रूप — तीन अर्थ - (१) प्रियान्मान : – जिन्हें अपनी आत्मा — जीवन प्रिय है। (२) प्रियदया :—जैसे सभी को अपना सुख प्रिय है, वैसे सभी को अपनी दया— रक्षण प्रिय है। (३) पियायए— प्रियायते, क्रिया = चाहते हैं, सत्कार करते हैं, उपासना करते हैं । ५
दोगुंछी : - तीन व्याख्याएँ – (१) जुगुप्सी = असंयम से जुगुप्सा करने वाला, (२) आहार किए बिना धर्म करने में असमर्थ अपने शरीर से जुगुप्सा करने वाला, (३) अप्पणो दुगंछी — आत्म जुगुप्सीआत्मनिन्दक होकर । अर्थात् आहार के समय आत्मनिन्दक होकर ऐसा चिन्तन करे कि अहो ! धिक्कार है मेरी आत्मा को, यह मेरी आत्मा या शरीर आहार के बिना धर्मपालन में असमर्थ है। क्या करूं, धर्मयात्रा के निर्वाहार्थ इसे भाड़ा देता हूँ। जैन शास्त्रों में दूसरों से जुगुप्सा करने का तो सर्वत्र निषेध है।
निष्कर्ष — प्रस्तुत गाथा (८) में अदत्तादान एवं परिग्रह इन दोनों आश्रवों के निरोध से उपरत होने से अन्य आश्रवों का निरोध भी ध्वनित होता है । ७
१. बृहद्वृत्ति, पत्र ३६४ २. (क) उत्तरा. चूर्णि, पृ० १५१ (ख) उत्तरा टीका, अ० रा० कोष, भा० ३, पृ० ७५१
३. उत्तरा टीका अ० रा० कोष, भा० ३, पृ० ७५१ ४. वही, अ० रा, को० पृ० ७५१
५.
(ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २६५
(क) उत्तरा चूर्णि, पृ० १५१ (ग) सुखबोधा, पत्र ११२
६. (क) 'दुगंछा—संयमो, किं (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २६६
(घ) उत्तरा. (सरपेंटियर कृत व्याख्या) पृ० ३०३ दुगंछति? असंजयं । ' – उत्तरा . चूर्णि, पृ० १५२ (ग) सुखबोधा, पत्र १२२
७. उत्तराध्ययन गा. ८, टीका, अ० रा० कोष, भा० २ / ७५१
(घ) उत्त. टीका, अ० रा० कोष० भाग ३ / ७५१