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उत्तराध्ययन सूत्र
८. आयाणं नरयं दिस्स नायएज तणामवि।
दो गुंछी अप्पणो पाए दिन्नं भुंजेज भोयणं ॥ [८] 'आदान (धन-धान्यादि का परिग्रह, अथवा अदत्तादान) नरक (नरक हेतु) है, यह जानदेखकर (बिना दिया हुआ)एक तृण भी (मुनि)ग्रहण न करे। आत्म-जुगुप्सक (देहनिन्दक) मुनि गृहस्थों द्वारा अपने पात्र में दिया हुआ भोजन ही करे।
विवेचन-पासजाईपहे : दो रूप—दो व्याख्याएँ- (१) चूर्णि में पश्य जातिपथान्' रूप मान कर 'पश्य' का अर्थ 'देख' और 'जातिपथान्' कर अर्थ —'चौरासी लाख जीवयोनियों को किया गया है, (२) बृहद्वृत्ति में—'पाशजातिपथान्' रूप मान कर पाश का अर्थ—'स्त्री-पुत्रादि का मोहजनित सम्बन्ध' है, जो कर्म बन्धनकारक होने से जातिपथ है, अर्थात् एकेन्द्रियादि जातियों में ले जाने वाले मार्ग हैं । इसका फलितार्थ है एकेन्द्रियादि जातियों में ले जाने वाले स्त्री-पुत्रादि के सम्बन्ध ।
अप्पणा सच्चमेसेज्जा—'अप्पणा' से शास्त्रकार का तात्पर्य है, विद्यावान् साधक स्वयं सत्य की खोज करे। अर्थात्-वह किसी दूसरे के उपदेश से, बहकाने, दबाने से, लज्जा एवं भय से अथवा गतानुगतिक रूप से सत्य की प्राप्ति नहीं कर सकता। सत्य की प्राप्ति के लिए वस्तुतत्त्वज्ञ विचारक साधक को स्वयं अन्तर् की गहराई में पैठकर चिन्तन करना आवश्यक है। सत्य का अर्थ है—जो सत् अर्थात् प्राणिमात्र के लिए हितकर—सम्यक् रक्षण, प्ररूपणादि से कल्याणकर हो। यथार्थ ज्ञान और संयम प्राणिमात्र के लिए हितकर होते हैं।
निष्कर्ष —प्रस्तुत अध्ययन का नाम क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय है, इसलिए निर्ग्रन्थ बन जाने पर उसे अविद्या के विविध रूपों से दूर रहना चाहिए और स्वयं विद्यावान् (सम्यग्ज्ञानी-वस्तुतत्त्वज्ञ) बनकर अपनी आत्मा और शरीर के आसपास लगे हुए अविद्याजनित सम्बन्धों से दूर रहकर स्वयं समीक्षा और सत्य की खोज करनी चाहिए। अन्यथा वह जिन स्त्रीपुत्रादिजनित सम्बन्धों का त्याग कर चुका है, उन्हें अविद्यावश पुनः अपना लेगा तो पुनः उसे जन्म-मरण के चक्र में पड़ना होगा। अतः अब उसे केवल एक कुटुम्ब के साथ मैत्रीभाव न रखकर विश्व के सभी प्राणियों के साथ मैत्रीभाव रखना चाहिए। यही सत्यान्वेषण का नवनीत
सपेहाए-दो अर्थ—(१) सम्यक् बुद्धि से, (२) अपनी बुद्धि से। पासे—दो अर्थ-(१) पश्येत्—देखे—अवधारण करे, (२) पाश—बन्धन।
समियदंसणे—दो रूप—दो अर्थ—(१) शमितदर्शन—जिसका मिथ्यादर्शन शमित हो गया हो, १. (क) जायते इतिजाती, जातीनां पंथा जातिपंथा:-चुलसीतिखूल लोए जोणीणं पमुहसयसहस्साई।-उ.चूर्णि, १४९
(ख) पाशा अत्यन्त पारवश्य हेतवः, कलत्रादिसम्बन्धास एवं तीव्रमोहोदयादि हेतुतया जातीनां एकेन्द्रियादिजातीनां पन्थान:-तत्प्रापकत्वान्मार्गाः, पाशाजातिपथाः, तान्।
-बृहद्वृत्ति, पत्र २६४ २. (क) उत्तरा. टीका० अ.भि.रा.कोष भा. ३ पृ. ७५० (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र २६४ ३. उत्तराध्ययन मूल पाठ अ० ६, गा० २ से ६ तक ४. (क) उत्त. चूर्णि, पृ० १५० (ख) बृहवृत्ति, पत्र २६४ (ग) सुखबोधा, पत्र २१२