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षष्ठ अध्ययन : क्षुल्लक-निर्ग्रन्थीय सत्यदृष्टि (विद्या) से अविद्या के विविध रूपों को त्यागने का उपदेश
२. समिक्ख पंडिए तम्हा पासजाईपहे बहू।
अप्पणा सच्चमेसेज्जा मेत्तिं भूएसु कप्पए॥ [२] इसलिए साधक पण्डित (विद्यावान्) बनकर बहुत-से पाशों (बन्धनों) और जातिपथों (एकेन्द्रयादि में जन्म-मरण के मोहजनित कारणों-स्रोतों) की समीक्षा करके स्वयं सत्य का अन्वेषण करें और विश्व के सभी प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव का संकल्प करें।
३. माया पिया ण्हुसा भाया भज्जा पुत्ता य ओरसा।
नालं ते मम ताणाय लुप्पन्तस्स सकम्मुणा॥ [३] (फिर सत्यद्रष्टा पण्डित यह विचार करे कि) अपने कृतकर्मों से लुप्त (पीड़ित) होते समय माता-पिता, पुत्रवधू, भाई, पत्नी तथा औरस (आत्मज) पुत्र ये सब (स्वकर्म-समुद्भूत दुःखों से) मेरी रक्षा करने में समर्थ नहीं हो सकते।
४. एयमढं सपेहाए पासे समियदसणे ।
छिन्द गेहिं सिणेहं च न कंखे पुव्वसंथवं ॥ [४] सम्यग्दर्शन-युक्त साधक अपनी प्रेक्षा (स्वतंत्र बुद्धि) से इस अर्थ (उपर्युक्त तथ्य) को देखे (तटस्थदृष्टा बनकर विचारे) (तथा अविद्याजनित) गृद्धि (आसक्ति) और स्नेह का छेदन करे। (किसी के साथ) पूर्व परिचय की आकांक्षा न रखता हुआ ममत्वभाव का त्याग कर दे।
५. गवासं मणिकुंडलं पसवो दासपोरुसं ।
सव्वमेयं चइत्ताणं कामरूवी भविस्ससि ॥ [५] गौ (गाय-बैल आदि), अश्व, और मणिकुण्डल, पशु दास और (अन्य सहयोगी या आश्रित) पुरुष-समूह, इन सब (पर अविद्याजनित ममत्व) का परित्याग करने पर ही (हे साधक!) तू काम-रूपी (इच्छानुसार रूप-धारक)होगा।
६. थावरं जंगमं चेव धणं धण्णं उवक्खरं ।
पच्चमाणस्स कम्मेहिं नालं दुक्खाउ मोयणे॥ [६] अपने कर्मों से दुःख पाते (पचते) हुए जीव को स्थावर (अचल) और जंगम (चल) सम्पत्ति, धन, धान्य, उपस्कर (गृहोपकरण-साधन) आदि सब पदार्थ भी (अविद्योपार्जित कर्मजनित) दुःख से मुक्त करने में समर्थ नहीं होते।*
७. अज्झत्थं सव्वओ सव्वं दिस्स पाणे पियायए ।
न हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उवरए ॥ [७] सबको सब प्रकार से अध्यात्म – (सुख) इष्ट हैं, सभी प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है; यह भय और वैर (द्वेष) उपरत (निवृत्त) साधक किसी भी प्राणी के प्राणों का हनन न करे। * यह गाथा चूर्णि एवं टीका में व्याख्यात नहीं है, इसलिए प्रक्षिप्त प्रतीत होती है। -सं.