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________________ उत्तराध्ययन सूत्र __ [७] मैं तो बहुजनसमूह के साथ रहूँगा (अर्थात्-दूसरे भोगपरायण लोगों की जो गति होगी वही मेरी होगी), इस प्रकार वह अज्ञानी मनुष्य धृष्टता को अपना लेता है, (किन्तु अन्त में) वह कामभोगों के अनुराग से (इहलोक एवं परलोक में) क्लेश ही पाता है। ८. तओ से दण्डं समारभई तसेसु थावरेसु य। अट्ठाए य अणट्ठाए भूयगामं विहिंसई॥ [८] उस (कामभोगानुराग) से वह (धृष्ट होकर) त्रस और स्थावर जीवों के प्रति दण्ड (मनवचन-कायदण्ड)-प्रयोग करता है, और कभी सार्थक और कभी निरर्थक प्राणिसमूह की हिंसा करता है। ९. हिंसे बाले मुसावाई माइल्ले पिसुणे सढे। भुंजमाणे सुरं मंस सेयमेयं ति मन्नई॥ [९] (फिर वह) हिंसक, मृषावादी, मायावी चुगलखोर, शठ (वेष-परिवर्तन करके दूसरों को ठगने वाला—धूर्त) अज्ञानी मनुष्य, मद्य और मांस का सेवन करता हुआ, यह मानता है कि यही (मेरे लिए) श्रेयस्कर (कल्याणकारी) है। १०. कायसा वयसा मत्ते वित्ते गिद्धे य इत्थिसु। दुहओ मलं संचिणइ सिसुणागुव्व मट्टियं॥ [१०] वह तन और वचन से (उपलक्षण से मन से भी) मत्त (गर्विष्ठ) हो जाता है। धन और स्त्रियों में आसक्त रहता है। (ऐसा मनुष्य) राग और द्वेष, दोनों से उसी प्रकार (अष्टविधकर्म-) मल का संचय करता है, जिस प्रकार शिशुनाग (अलसिया) अपने मुख से (मिट्टी खाकर) और शरीर से (मिट्टी में लिपट कर)-दोनों ओर से मिट्टी का संचय करता है। ११. तओ पुट्ठो आयंकेणं गिलाणो परितप्पई। पभीओ परलोगस्स कम्माणप्पेहि अप्पणो॥ [११] उस (अष्टविध कर्मफल का संचय करने) के पश्चात् वह (भोगासक्त बाल जीव) आतंक (प्राणघातक रोग) से आक्रान्त होने पर ग्लान (खिन) होकर सब प्रकार के संतप्त होता है, (तथा) अपने किये हुए अशुभ कर्मों का अनुप्रेक्षण (-विचार या स्मरण) करके परलोक से अत्यन्त डरने लगता है। १२. सुया मे नरए ठाणा असीलाणं च जा गई। ___ बालाणं कूर-कम्माणं पगाढा जत्थ वेयणा। [१२] वह विचार करता है—'मैंने उन नारकीय स्थानों (कुम्भी, वैतरणी, असिपत्र वन आदि) के विषय में सुना है, जहाँ प्रगाढ (तीव्र)वेदना है। तथा जो शील (सदाचार) से रहित क्रूर कर्म वाले अज्ञजीवों की गति है।' १३. तत्थोववाइयं ठाणं जहा मेयमणुस्सुयं। __ आहाकम्मेहिं गच्छन्तो सो पच्छा परितप्पई॥ ___ [१३] जैसा कि मैने परम्परा से यह सुना है—उन नरकों में औपपातिक (उत्पन्न होने का) स्थान है, (जहाँ उत्पन्न होने के अन्तमुहूर्त के बाद ही महावेदना का उदय हो जाता है और वह निरन्तर रहता है।)
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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