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________________ पंचम अध्ययन : अकाममरणीय (यहाँ से आयुष्य क्षीण होने के पश्चात्) वह अपने किये हुए कर्मों के अनुसार वहाँ जाता हुआ पश्चाताप करता है। १४. जहा सागडिओ जाणं समं हिच्चा महापहं। विसमं मग्गमोइण्णो अक्खे भग्गंमि सोयई॥ १५. एवं धम्मं विउक्कम्म अहम्मं पडिवजिया। बाले मच्चु-मुह पत्ते अक्खे भग्गे व सोयई॥ [१४-१५] जैसे कोई गाड़ीवान सम महामार्ग को जानता हुआ भी उसे छोड़ कर विषम मार्ग (उत्पथ) में उतर जाता है, तो गाड़ी की धुरी टूट जाने पर शोक करता है; वैसे ही धर्म का उल्लंघन करके जो अज्ञानी अधर्म को स्वीकार कर लेता है, वह मृत्यु के मुख में पड़ने पर उसी तरह शोक करता है; जैसे धुरी टूट जाने पर गाड़ीवान करता है। १६. तओ से मरणन्तंमि बाले सन्तस्सई भया। अकाम-मरणं मरई धुत्ते व कलिना जिए॥ [१६] फिर वह अज्ञानी जीव मृत्युरूप प्राणान्त के समय (नरकादि परलोक के) भय से संत्रस्त (उद्विग्न) होता है, और एक ही दाव में सर्वस्व हार जाने वाले धूर्त-जुआरी की तरह (शोक करता हुआ) अकाममरण से मरता है। विवेचन—कामगिद्धे- इच्छाकाम और मदनकाम, इन दोनों का अभिकांक्षी-आसक्त । 'काम-भोगसे-शब्द और रूप, ये दोनों 'काम', तथा गन्ध, रस और स्पर्श, 'भोग' कहलाते हैं। अथवा प्रकारान्तर से स्त्रीसंग को काम, और विलेपन-मर्दन आदि को भोग कहा गया है। 'एगे' पद का आशय कामभोगासक्त मानव अकेला—किसी मित्रादि सहायक से रहित-ही कटनरक में जाता है।'३ कूडाय गच्छइ–तीन अर्थ-(१) कूट-मांसादि की लोलुपतावश मृगादि को बन्धन में डालता है। (२) कूट में पड़े हुए मृग को शिकारी द्वारा यातना दी जाती है, उसी तरह कूट-नरक में पड़े जीव को भी परमाधार्मिक असुर यातना देते हैं—अतः कूट अर्थात् नरक के बन्धन में पड़ता है। (३) कूटमिथ्याभाषाणादि में प्रवृत्त होता है। अनात्मवादी नास्तिकों का मत-बालजीव किस विचारधारा से प्रेरित होकर हिंसादि कर्मों का आचारण धृष्ट और नि:संकोच होकर करते हैं? इस तथ्य को इस अध्ययन की पांचवीं, छठी और सातवीं गाथाओं द्वारा व्यक्त किया गया है१. बृहद्वृत्ति, पत्र २४२ २. वही, पत्र २४२ में उद्धत..... "कामा दुविहा पण्णत्ता-सहा' रूवाय, भोगा तिविहा पण्णत्ता तं-गंधा रसा फासा य।' यद्वा–यो गृद्ध:-कामभोगेषु कामेषु स्त्रीसंगेषु, भोगेसु धूपन-विलेपनादिषु । ३. 'एकः सुहृदादिसहाय्यरहित:'-बृहद्वत्ति, पत्र २४३ ४. 'कूटमिव कूटं प्रभूतप्राणिनां यातनाहेतुत्वान्नरक इत्यर्थः अथवा कूटं द्रव्यतो: भावतश्च, तत्र द्रव्यतो मृगादिबन्धनं, भावस्तु मिथ्याभाषणादि।'–बृ० वृ० पत्र २४३
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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