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उत्तराध्ययन सूत्र
अकाममरणीय को भोग रहा है, उसी भव की आयु बांध कर मरना, (५) गिरिपतन, (६) तरुपतन, (७) जलप्रवेश, (८) अग्निप्रवेश, (९) विषभक्षण, (१०) शस्त्रावपाटन, (११) बैहासय (वृक्ष की शाखा पर लटकने, पर्वत से गिरने, झंपापात आदि करने से होने (वाला मरण) और (१२) हाथी आदि के मृत कलेवर में प्रविष्ट होने पर गद्ध आदि द्वारा उस जीवित शरीर को नोच कर खाने से होने वाला मरण)। जो अविरत (व्रत-प्रत्याख्यान, त्याग, नियम से रहित) हो, उस मिथ्यात्वी अथवा व्रतरहित व्यक्ति के मरण को बालमरण कहते हैं। भगवती-आराधना (विजयोदयावृत्ति) में बाल के ५ भेद करके, उनके मरण को बालमरण कहा गया है। – (१) अव्यक्तबाल छोटा बच्चा, जो धर्मार्थकाम-मोक्ष को नहीं जानता और न इन पुरुषार्थों का आचरण करने में समर्थ है, (२) व्यवहारबाल–जो लोकव्यवहार, शास्त्रज्ञान आदि को नहीं जानता, (३) ज्ञानबाल-जो जीवादि पदार्थों को सम्यक्प से नहीं जानता, (४) दर्शनबाल—जिसकी तत्त्वों के प्रति श्रद्धा नहीं होती। दर्शनबाल की मृत्यु के भेद हैं- इच्छाप्रवृत्त और अनिच्छाप्रवृत्त । अग्नि, धूप, शस्त्र, विष, पानी आदि या पर्वत से गिर, कर श्वासोच्छ्वास रोक कर, अत्यन्त शीत और अत्यन्त ताप में रह कर, भूखे-प्यासे रह कर, जीभ उखाड़ कर, या प्रकृति विरुद्ध आहार करके-इन या इस प्रकार के अन्य साधनों से जो इच्छा से आत्महत्या करता है, वह इच्छाप्रवृत्त दर्शनबालमरण है, तथा योग्य काल में या अकाल में (रोग, दुर्घटना, हृदयगतिअवरोध आदि से) मरने की इच्छा के बिना जो मृत्यु होती है, वह अनिच्छाप्रवृत्त दर्शनबालमरण है। (५) चारित्रबाल-चारित्र से हीन, विषयासक्त, अतिभोगपरायण, ऋद्धि औ रसों में आसक्त, सुखाभिमानी, अज्ञानान्धकार से आच्छादित, पापकर्मरत जीव चारित्रबाल हैं। संयत और सर्वविरति का मरण पण्डितमरण कहलाता है। विजयोदया में इसके चार भेद किये गए हैं- (१) व्यवहारपण्डित (लोक, वेद, समय के व्यवहार में निपुण, शास्त्रज्ञाता, शुश्रूषादिगुणयुक्त), (२) दर्शनपण्डित (सम्यक्त्वयुक्त), (३) ज्ञानपण्डित (सम्यग्ज्ञानयुक्त), (४) चारित्रपण्डित (सम्यक्चारित्रयुक्त)। इनके मरण को पण्डितमरण कहा गया है। पण्डितमरण के मुख्यतया तीन भेद हैं—(१) भक्तप्रत्याख्यानमरण, (२) इंगिनीमरण और (३) पादोपगमनमरण। (१) भक्तप्रत्याख्यान—जीवनपर्यन्त त्रिविध या चतुर्विध आहारत्यागपूर्वक होने वाला मरण, (२) इंगिनीमरण—प्रतिनियत स्थान या चतुर्विध आहार त्यागरूप अनशनपूर्वक मरण। इसमें दूसरों से सेवा नहीं ली जाती, साधक अपनी शुश्रूषा स्वयं करता है। (३) प्रायोपगमनपादपोपगमन–पादोपगमनमरण- अपनी परिचर्या न स्वयं करे, न दूसरों से कराए, ऐसा मरण प्रायोपगमन या प्रायोग्य है । वृक्ष के नीचे स्थिर अवस्था में चतुर्विध आहार-त्यागपूर्वक जो मरण
हो, उसे पादपोपगमन कहते हैं। संघ से मुक्त होकर अपने पैरों से योग्य प्रदेश में जाकर जो मरण १. भगवतीसूत्र २/९/९०, स्थानांग स्था० ३, सू० २२२ २. अविरयमरणं बालमरणं। -उ० नियुक्ति २२२ ३. विजयोदयावृत्ति, पत्र ८७-८८