________________
७७
पंचम अध्ययन
अकाममरणीय नहीं होता। मृत्यु का सम्बन्ध आत्मद्रव्य की प्रतिक्षण उत्पाद-व्यय-शील पर्याय—परिवर्तन से भी नहीं है और न ही सिर्फ शरीर का परिवर्तन मृत्यु है। आत्मा का शरीर को छोड़ना मृत्यु है। आत्मा शरीर को तभी छोड़ता है जब आत्मा और शरीर को जोड़े रखने वाला आयुष्यकर्म प्रतिक्षण क्षीण
होता-होता सर्वथा क्षीण हो जाता है। * मरण की इस पहेली को न जानने पर ही मरण दुःख और भय का कारण बनता है। मृत्यु को
भलीभाँति जान लेने पर मृत्यु का भय और दुःख मिट जाता है। मृत्यु का बोध स्वयं (आत्मा) की सत्ता के बोध से, स्वरूपरमणता से, संयम से एवं आत्मलक्षी जीवन जीने से हो जाता है। जिसे यह बोध हो जाता है, वह अपने जीवन में सदैव अप्रमत्त रह कर पापकर्मों से बचता है, तन, मन, वचन से होने वाली प्रवृत्तियों पर चौकसी रखता है, शरीर से धर्मपालन करने के लिए ही उसका पोषण करता है। जब शरीर धर्मपालन के लिए अयोग्य-अक्षम हो जाता है, इसका संल्लेखना विधिपूर्वक उत्सर्ग करने में भी वह नहीं हिचकिचाता। उसकी मृत्यु में भय, खेद
और कष्ट नहीं होता। इसी मृत्यु को पण्डितों का सकाममरण कहा है। इसके विपरीत जिस मृत्यु में भय, खेद और कष्ट है, जिसमें संयम और आत्मज्ञान नहीं है, हिंसादि से विरति नहीं है, उसे
बालजीवों -अज्ञानियों का अकाममरण कहा है। * प्रस्तुत अध्ययन का मूल स्वर है—साधक को अकाममरण से बच कर सकाममरण की अपेक्षा
करनी चाहिए। इसीलिए इसमें ४थी से १६वीं गाथा तक अकाममरण के स्वरूप, अधिकारी, उसके स्वभाव तथा दुष्परिणाम का उल्लेख किया गया है। तत्पश्चात् सकाममरण के स्वरूप, और अधिकारीअनधिकारी की चर्चा करके, अन्त में सकाममरण के अनन्तर प्राप्त होने वाली स्थिति का उल्लेख १७वीं से २९वीं गाथा तक में किया गया है। अन्त में ३०वीं से ३२वीं गाथा तक सकाममरण को
प्राप्त करने का उपदेश और उपाय प्रतिपादित है। * भगवतीसूत्र में मरण के ये ही दो भेद किये हैं—बालमरण और पण्डितमरण, किन्तु स्थानांगसूत्र में
इन्हीं को तीन भागों में विभक्त किया है—बालमरण, पण्डितमरण और बालपण्डितमरण । व्रतधारी श्रावक विरताविरत कहलाता है। वह विरति की अपेक्षा से पण्डित और अविरति की अपेक्षा से
बाल कहलाता है। इसलिए उसके मरण को बालपण्डितमरण कहा गया है। * बालमरण के १२ भेद बताए गए हैं—(१) वलय (संयमी जीवन से पथभ्रष्ट, पार्श्वस्थ, स्वच्छन्द,
कुशील, संसक्त और अवसन्न साधक की या भूख से तड़पते व्यक्ति की मृत्यु), (२) वशात (इन्द्रियभोगों के वश–इन्द्रियवशात, वेदनावशार्त, कषायवशात, नोकषायवशात मृत्यु), (३) अन्तःशल्य (या सशल्य) मरण (माया, निदान और मिथ्यात्व दशा में होने वाला मरण, अथवा शास्त्रादि की नोक से होने वाला द्रव्य अन्तः शल्य एवं लज्जा, अभिमान आदि के कारण दोषों की शुद्धि न करने की स्थिति में होने वाला भावान्तः शल्यमरण), (४) तद्भवमरण-वर्तमान भव में जिस आयु
१. प्रतिनियतायुः पृथग्भवने, द्वा० १४ द्वा 'आयुष्यक्षये-आचारांग १ श्रु० अ०३ उ०२ २. उत्तरा० अ०५ मूल