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________________ ७४ उत्तराध्ययन सूत्र 'घोरा मुहुत्ता का भावार्थ'–यहाँ मुहूर्त शब्द से काल का ग्रहण किया गया है । प्राणाी की आयु प्रतिपल क्षीण होती है—इस दृष्टि से निर्दय काल प्रतिक्षण जीवन का अपहरण करता है तथा प्राणी की आयु अल्प होती है और मृत्यु का काल अनिश्चित होता है । न जाने वह कब आ जाए और प्राणी को उठा ले जाए, इसीलिए उसे घोर–रौद्र कहा है । भारडपक्खी-भारण्डपक्षी-अप्रमाद अवस्था को बताने के लिए इस उपमा का प्रयोग अनेक स्थलों में किया गया है । चूर्णि और टीकाओं के अनुसार भारण्डपक्षी दो जीव संयुक्त होते हैं, इन दोनों के तीन पैर होते हैं। बीच का पैर दोनों के लिए सामान्य होता है और एक-एक पैर व्यक्तिगत । वे एक दूसरे के प्रति बड़ी सावधानी बरतते हैं, सतत जाग्रत रहते हैं। इसीलिए भारण्डपक्षी के साथ 'चरेऽप्पमत्तो' पद दिया है। पंचतंत्र और वसुदेवहिण्डी में भारण्डपक्षी का उल्लेख मिलता है। _ 'जं किंचिपासं०' का आशय –'यत्किचित्' का तात्पर्यार्थ है–थोड़ा सा प्रमाद या दोष । यत्किचित् प्रमाद भी पाश-बन्धन है। क्योंकि दुश्चिन्तित, दुर्भाषित और दुष्कार्य ये सब प्रमाद हैं। जो बुरा चिन्तन करता है, वह भी राग-द्वेष एवं कषाय से बंध जाता है। कटु आदि भाषण भी बन्धन-कारक है और दुष्कार्य तो प्रत्यक्ष बन्धनकारक है ही । शान्त्याचार्य ने 'जं किंचि' का मुख्य आशय 'गृहस्थ से परिचय करना आदि' और गौण आशय 'प्रमाद' किया है । ३ विषयों के प्रति रागद्वेष एवं कषायों से आत्मरक्षा की प्रेरणा ११. मुहं मुहं मोह-गुणे जयन्तं अणेग-रूवा समणं चरन्तं। फासा फुसन्ती असमंजसं च न तेसु भिक्खु मणसा पउस्से॥ [११] बार-बार मोहगुणों-रागद्वेषयुक्त परिणामों पर विजय पाने के लिए यत्नशील तथा संयम में विचरण करते हुए श्रमण को अनेक प्रकार के (अनुकूल-प्रतिकूल शब्दादिविषयरूप) स्पर्श असमंजस (विघ्न या अव्यवस्था) पैदा करके पीड़ित करते हैं, किन्तु भिक्षु उन पर मन से भी प्रद्वेष न करे । १२. मन्दा य फासा बहु-लोहणिज्जा तह-प्पगारेसु मणं न कुजा। रक्खेज कोहं, विणएज माणं मायं न सेवे, पयहेज लोहं॥ १. 'घोराः-रौद्राः सततमपि प्राणिनां प्राणपहारित्त्वात् मुहूर्ताः-कालविशेषाः दिवसाधुपलक्षणमेतत्।'-सुखबोधा, पत्र ९४ २. (क) एकोदरा पृथग्ग्रीवाः अन्योन्यफलभक्षिणः। प्रमत्ता हि विनश्यन्ति, भारण्डा इव पक्षिणः ॥-उत्तरा. अ. ४, गा. ६ वृत्ति (ख) भारण्डपक्षिणोः किल एकं कलेवरं पृथग्ग्रीवं त्रिपादं च स्यात् । यदुक्तम् भारण्डपक्षिणः ख्याता: त्रिपदा: मर्त्यभाषिणः । द्विजिह्वा द्विमुखश्चैकोदरा भिन्नफलैषिणः ॥ -कल्पसूत्र किरणावली टीका (ग) पंचतंत्र के अपरीक्षितकारक में उत्तरा. टीका से मिलता-जुलता श्लोक है, केवल 'प्रमत्ता' के स्थान पर 'असंहता' शब्द है। ३. (क) यत्किचिदल्पमपि दुश्चिन्तितादि प्रमादपदं मूलगुणादिमालिन्यजनकतया बन्धहेतुत्वेन । यत्किचित् गृहस्थसंस्तवाद्यल्पमपि...। -उत्तरा. वृ., वृ. पत्र २१७ (ख) उ. चूर्णि, पृ. ११७
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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