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________________ चतुर्थ अध्ययन : असंस्कृत ७३ ७. चरे पयाइं परिसंकमाणो जं किंचि पासं इह मण्णमाणो । लाभन्तरे जीविय वूहइत्ता पच्छा परिन्नाय मलावधंसी ॥ [७]साधक पद-पद पर दोषों के आगमन की संभावना से आशंकित होता हुआ चले, जरा से (किञ्चित्)प्रमाद या दोष को भी पाश (बंधन) मानता हुआ इस संसार में सावधान रहे । जब तक नये-नये गुणों की उपलब्धि हो, तब तक जीवन का संवर्धन (पोषण) करे। इसके पश्चात् लाभ न हो तब, परिज्ञान (ज्ञपरिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से शरीर का त्याग) करके कर्ममल (या शरीर) का त्याग करने के लिए तत्पर रहे। ८. छन्दं निरोहेण उवेइ मोक्खं आसे जहा सिक्खिय-वम्मधारी। पुव्वाइं वासाई चरेऽप्पमत्तो तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं॥ _[८] जैसे शिक्षित (सधा हुआ) तथा कवचधारी अश्व युद्ध में अपनी स्वच्छन्दता पर नियंत्रण पाने के बाद ही विजय (स्वातंत्र्य—मोक्ष) पाता है, वैसे ही अप्रमाद से अभ्यस्त साधक भी स्वच्छन्दता पर नियंत्रण करने से जीवनसंग्राम में विजयी हो कर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। जीवन के पूर्ववर्षों में जो साधक अप्रमत्त होकर विचरण करता है, वह उस अप्रमत्त विचरण से शीघ्र मोक्ष पा लेता है। ९. स पुव्वमेवं न लभेज पच्छा एसोवमा सासय-वाइयाणं। विसीयई सिढिले आउयंमि कालोवणीए सरीरस्स भेए॥ [९] जो पूर्वजीवन में अप्रमत्त—जागृत नहीं रहता, वह पिछले जीवन में अप्रमत्त नहीं हो पाता; यह ज्ञानीजनों की धारणा है, किन्तु ' अन्तिम समय में अप्रमत्त हो जाएँगे, अभी क्या जल्दी है?' यह शाश्वतवादियों (स्वयं को अजर-अमर समझने वाले अज्ञानी जनों) की मिथ्या धारण (उपमा) है। पूर्वजीवन में प्रमत्त रहा हुआ व्यक्ति, आयु के शिथिल होने पर मृत्युकाल निकट आने तथा शरीर छूटने की स्थिति आने पर विषाद पाता है। १०. खिप्पं न सक्केइ विवेगमेउं तम्हा समट्ठाय पहाय कामे । समिच्च लोयं समया महेसी अप्पाण-रक्खी चरमप्पमत्तो ॥ [१०] कोई भी व्यक्ति तत्काल आत्मविवेक (या त्याग) को प्राप्त नहीं कर सकता । अत: अभी से कामभोगों का त्याग करके, संयमपथ पर दृढ़ता से समुत्थित (खड़े) हो कर तथा लोक (स्व-पर जन या समस्त प्राणिजगत्) को समत्वदृष्टि से भलीभांति जान कर आत्मरक्षक महर्षि अप्रमत्त हो कर विचरण करे। विवेचन—सुत्तेसु-सुप्त के दो अर्थ -द्रव्यतः सोया हुआ, भावतः धर्म के प्रति अजाग्रत । । पडिबुद्धि०-दो अर्थ—प्रतिबोध-द्रव्यतः जाग्रत, भावतः यथावस्थित वस्तुतत्त्व का ज्ञान । अथवा दो अर्थ:-द्रव्य से जो नींद में न हो, भाव से धर्माचरण के लिए जागृत हो। १. (क) 'द्रव्यत: शयानेषु, भावतस्तु धर्म प्रत्यजाग्रत्सु ।' (ख) प्रतिबुद्ध-प्रतिबोध: द्रव्यत: जाग्रता. भावतस्तु यथावस्थित-वस्तुतत्त्वावगमः । -बृहदवृत्ति पत्र २१३
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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