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उत्तराध्ययन सूत्र
उन्नयमाणा अक्खलिय-परक्कम्मा पंडिया कई जे य।
महिलाहिं अंगुलीए नच्चाविजंति ते वि नरा॥२॥ वेराणुबद्धा—वैर शब्द के तीन अर्थ—(१) शत्रुता, (२) वज्र (पाप) और (३) कर्म। अतः वैरानुबद्ध के तीन अर्थ भी इस प्रकार होते हैं—(१) वैर की परम्परा बांधे हुए, (२) वज्र-पाप से अनुबद्ध, एवं (३) कर्मों से बद्ध। प्रस्तुत में 'कर्मबद्ध' अर्थ ही अभीष्ट है ।२
संधिमुहे- सन्धिमुख का शाब्दिक अर्थ सेंध के मुख—द्वार पर है। टीकाकारों ने सेंध कई प्रकार की बताई है—कलशाकृति, नन्द्यावर्ताकृति, पद्माकृति, पुरुषाकृति आदि।
दो कथाएँ–(१) प्रथम कथा—प्रियंवद चोर स्वयं काष्ठकलाकार बढ़ई था। उसने सोचा-सेंध देखने के बाद लोग आश्चर्यचकित होकर मेरी कला की प्रशंसा न करें तो मेरी विशेषता ही क्या! उसने करवत से पद्माकृति सेंध बनाई, स्वयं उसमें पैर डाल कर धनिक के घर में प्रवेश करने का सोचा, लेकिन घर के लोग जाग गए। उन्होंने चोर के पैर कस कर पकड़ लिए और अन्दर खींचने लगे। उधर बाहर चोर के साथी उसे बाहर की ओर खींचने लगे। इसी रस्साकस्सी में वह चोर लहूलुहान होकर मर गया। (२) एक चोर अपने द्वारा लगाई हुई सेंध की प्रशंसा सुन कर हर्षातिरेक से संयम न रखने के कारण पकड़ा गया। दोनों कथाओं का परिणाम समान है। जैसे चोर अपने ही द्वारा की हुई सेंध के कारण मारा या पकड़ा जाता है, वैसे ही पापकर्मा जीव अपने ही कृतकर्मों के फलस्वरूप कर्मों से दण्डित होता है।
दीव-प्पणढे व–दीव के दो रूप : दो अर्थ- द्वीप और दीप। (१) आश्वासद्वीप (समुद्र में डूबते हए मनष्यों को आश्रय के लिए आश्वासन देने वाला) तथा। (२) प्रकाशदीप (अन्धकार में प्रकाश करने वाला)। यहाँ प्रकाशदीप अर्थ अभीष्ट है। उदाहरण– कई धातुवादी धातुप्राप्ति के लिए भूगर्भ में उतरे। उनके पास दीपक, अग्नि और ईन्धन थे। प्रमादवश दीपक बुझ गया, अग्नि भी बुझ गई। अब वे उस गहन अन्धकार में पहले देखे हुए मार्ग को भी नहीं पा सके । जीवन के प्रारम्भ से अन्त तक प्रतिक्षण अप्रमाद का उपदेश
६. सुत्तेसु यावी पडिबुद्ध-जीवी न वीससे पण्डिए आसु-पन्ने।
घोरा मुहुत्ता अबलं सरीरं भारण्ड-प्रक्खी व चरेऽप्पमत्तो॥ [६]आशुप्रज्ञ (प्रत्युत्पन्नमति) पण्डित साधक (मोहनिद्रा में) सोये हुए लोगों में प्रतिक्षण प्रतिबुद्ध (जागृत) होकर जीए। (प्रमाद पर एक क्षण भी) विश्वास न करे। मुहूर्त (समय) बड़े घोर (भयंकर) हैं और शरीर दुर्बल है। अत: भारण्डपक्षी की तरह अप्रमत्त होकर विचरण करना चाहिए।
१. (क) 'पश्य-अवलोकय ।'–बृहवृत्ति, पत्र २०६ (ख) 'पाशा इव पाशाः।-सुखबोधा, पत्र ८० २. (क) वैरं='कर्म, तेनानुबद्धाः सततमनुगताः ।'–बृ. वृ., पत्र २०६
(ख)वैरानुबद्धाः पापेन सततमनुगताः। -सु.बो. पत्र ८० ३. (क)बृहद्वृत्ति, पत्र २०७
(ख) उत्तरा. चूर्णि, पृ. १११ ४. (क)बहवृत्ति, पत्र २०७-२०८
(ख) उत्तरा.चूर्णि, पृ. ११०-१११ (ग)सुखबोधा पृ.८१-८२ ५. (क) उत्तरा. नियुक्ति, गा. २०६-२०७
(ख) बृहद्वृत्ति, पृ. २१२-२१३