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________________ चतुर्थ अध्ययन : असंस्कृत ७१ [२] जो मनुष्य कुबुद्धि का सहारा ले कर पापकर्मों से धन का उपार्जन करते हैं (पापोपार्जित धन को यहीं) छोड़ कर राग-द्वेष के पाश (जाल) में पड़े हुए तथा वैर (कर्म) से बंधे हुए वे मनुष्य (मर कर) नरक में जाते हैं। ३. तेणे जहा सन्धि-मुहे गहीए सकम्मुणा किच्चइ पावकारी। ___ एवं पया पेच्च इहं च लोए कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि॥ [३] जैसे सेंध लगाते हुए संधि-मुख में पकड़ा गया पापकारी चोर स्वयं किये हुए कर्म से ही छेदा जाता (दण्डित होता) है, वैसे ही इहलोक और परलोक में प्राणी स्वकृत कर्मों के कारण छेदा जाता है; (क्योंकि) कृत-कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता। ४. संसारमावन्न परस्स अट्ठा साहारणं जं च करेइ कम्म। ___कम्मस्स ते तस्स उ वेय-काले न बन्धवा बन्धवयं उवेन्ति॥ [४] संसारी प्राणी (अपने और) दूसरों (बन्धु-बान्धवों) के लिए, जो साधारण (सबको समान फल मिलने की इच्छा से किया जाने वाला) कर्म करता है, उस कर्म के वेदन (फलभोग) के समय वे बान्धव बन्धुता नहीं दिखाते (-कर्मफल में हिस्सेदार नहीं होते)। ५. वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते इमंमि लोए अदवा परत्था। दीव-प्पणढे व अणन्त-मोहे नेयाउयं दद्रुमदद्रुमेव॥ [५] प्रमादी मानव इस लोक में अथवा परलोक में धन से त्राण—संरक्षण नहीं पाता। अन्धकार में जिसका दीपक बुझ गया हो, उसका पहले प्रकाश में देखा हुआ मार्ग भी, जैसे न देखे हुए की तरह हो जाता है, वैसे ही अनन्त मोहान्धकार के कारण जिसका ज्ञानदीपक बुझ गया है, वह प्रमत्त न्यायमुक्त मोक्षमार्ग को देखता हुआ भी नहीं देखता। विवेचन-पावकम्मेहिं-पापकर्म (१) मनुष्य को पतन के गर्त में गिराने वाले हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह आदि, (२) पाप के उपादानहेतुक अनुष्ठान (कुकृत्य) और (३)(अपरिमित) कृषि-वाणिज्यादि अनुष्ठान । पासपयट्टिए-दो अर्थ-(१) पश्य प्रवृत्तान्– उन्हें (पापप्रवृत्त मनुष्यों को) देख; (२) पाश प्रतिष्ठित-रागद्वेष, वासना या काम के पाश (जाल) में फंसे (-पड़े) हुए। पाश' से सम्बन्धित दो प्राचीन श्लोक सुखबोधा वृत्ति में उद्धृत है वारिगयाणं जालं तिमीण, हरिणाण वागुरा चेव। पासा य सउणयाणं णराण बन्धथमित्थीओ॥१॥ १. (क) पापयते तमितिपापं, क्रियते इति कर्म, पापकर्माणि हिंसानृतस्तेया ब्रह्मपरिग्रहादीनि। --उत्तरा० चूर्णि० ११० (ख) पापकर्मभिः -पापोपादानहेतुभिरनुष्ठानैः। -बृहद्वृत्ति पत्र २०६ (ग) “पापकर्मभिः (अपरिमित) कृषि-वाणिज्यादिभिरनुष्ठानैः।'-सुखबोधा पत्र ८०
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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