________________
चउत्थं अज्झयणं : चतुर्थ अध्ययन
असंखयं : असंस्कृत
असंस्कृत जीवन और अप्रमादत्याग की प्रेरणा
१.
असंखयं जीविय मा पमायए जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं । एवं वियाणाहि जणे पत्ते किण्णू विहिंसा अजया गहिन्ति ॥
[१] जीवन असंस्कृत (सांधा नहीं जा सकता) है। इसलिए प्रमाद मत करो। वृद्धावस्था प्राप्त होने पर कोई भी शरण (त्राण) नहीं होता। विशेष रूप से यह जान लो कि प्रमत्त, विशिष्ट हिंसक और अविरत (असंयमी ) जन (समय पर) किसकी शरण ग्रहण करेंगे?
विवेचन — जीवन असंस्कृत क्यों और कैसे ? — टूटते हुए जीवन को बचाना या टूट जाने पर उसे साधना सैकड़ों इन्द्र आ जाएँ तो भी अशक्य है। जीवन के मुख्यतया पांच पड़ाव हैं - (१) जन्म, (२) बाल्यावस्था, (३) युवावस्था, (४) वृद्धावस्था और (५) मृत्यु । कई प्राणी तो जन्म लेते ही मर जाते हैं, कई बाल्यावस्था में भी काल के गाल में चले जाते हैं, युवावस्था का भी कोई भरोसा नहीं है। रोग, शोक, चिन्ता आदि यौवन में ही 'मनुष्य को मृत्युमुख में ले जाते हैं, बुढ़ापा तो मृत्यु का द्वार या द्वारपाल है। प्राण या आयुष् क्षय होने पर मृत्यु अवश्यम्भावी है। इसीलिए कहा गया है— जीवन क्षणभंगुर है, टूटने वाला है।
1
प्रमाद से दूर और अप्रमाद के निकट रहने का उपदेश - असंस्कृत जीवन के कारण मनुष्य को किसी भी अवस्था में प्रमाद नहीं करना चाहिए। जो धर्माचरण में प्रमाद करता है, उसे किसी भी अवस्था में कोई भी शरण देने वाला नहीं, विशेषतः बुढ़ापे में जब कि मौत झांक रही हो, प्रमादी मनुष्य हाथ मलता रह जाएगा, कोई भी शरणदाता नहीं मिलेगा।
कहा भी है- "मंगलैः
कौतुकैर्योगैर्विद्यामंत्रैस्तथौषधैः ।
न शक्ता मरणात् त्रातुं, सेन्द्रा देवगणा अपि ॥"
अर्थात् — मंगल, कौतुक, योग, विद्या, एवं मंत्र, औषध, यहाँ तक कि इन्द्रों सहित समस्त देवगण भी मृत्यु से बचाने में असमर्थ हैं।
उदाहरण - वृद्धावस्था में कोई भी शरण नहीं होता, इस विषय में उज्जयिनी के अट्टनमल्ल का उदाहरण
दृष्टव्य है । २
प्रमत्तकृत विविध पापकर्मों के परिणाम
२.
१. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र १९९
जे पावकम्मेहिं धणं मणुस्सा समाययन्ती अमई गहाय । पहाय ते पासपयट्टिए नरे वेराणुबद्धा नरयं उवेन्ति ॥
(ख) प्रशमरित (वाचक उमास्वति) २.
बृहद्वृत्ति पत्र २०५