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उत्तराध्ययन सूत्र
काया के विकारों से रहित है, जो 'पर' की आशा (अपेक्षा–स्पृहा) से निवृत्त है, उनके लिए यहीं मुक्ति
घयसित्तव्व पावए–प्रस्तुतगाथा में निर्वाण की तुलना घृतसिक्त अग्नि से की है, जो प्रज्वलित होती है, बुझती नहीं। इसलिए निर्वाण का अर्थ आत्मा की प्रज्वलित तेजोमयी स्थिति है, जिसे चाहे मुक्तिजीवन्मुक्ति कह लें या स्वस्थता कह लें, बात एक ही है। दुर्लभ चतुरंगप्राप्ति का परम्परागत फल
१४. विसालिसेहिं सीलेहिं जक्खा उत्तर-उत्तरा।
महासुक्का व दिप्पन्ता मन्नन्ता अपुणच्चवं॥ [१४] विविध शीलों (व्रताचरणों) के पालन से यक्ष (महनीय ऋद्धिसम्पन्न देव) होते हैं। वे उत्तरोत्तर (स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति एवं लेश्या की अधिकाधिक) समृद्धि के द्वारा महाशुक्ल (चन्द्र, सूर्य) की भाँति दीप्तिमान होते हैं और वे 'स्वर्ग से पुनः व्यवन नहीं होता,' ऐसा मानने लगते हैं।
१५. अप्पिया देवकामाणं कामरूव-विउव्विणो।
उड्ढे कप्पेसु चिट्ठन्ति पुव्वा वाससया बहू॥ [१५] (एक प्रकार से) दिव्य काम-भोगों के लिए अपने आपको अर्पित किये हुए वे देव इच्छानुसार रूप बनाने (विकुर्वणा करने) में समर्थ होते हैं तथा ऊर्ध्व कल्पों में पूर्ववर्ष-शत अर्थात् सुदीर्घ काल तक रहते हैं।
१६. तत्थ ठिच्चा जहाठाणं जक्खा आउक्खए चुया।
उवेन्ति माणुसं जोणिं से दसंगेऽभिजायई॥ · [१६] वे देव उन कल्पों में (अपनी शीलाराधना के अनुरूप) यथास्थान अपनी-अपनी कालमर्यादा (स्थिति) तक ठहर कर, आयुक्षय होने पर वहाँ से च्युत होते हैं और मनुष्ययोनि पाते हैं, जहाँ वे दशांग भोगसामग्री से युक्त स्थान में जन्म लेते हैं। १. (क) 'निर्वृत्तिः निर्वाणम्'–उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० ९९ (ख) 'निर्वाणं-निवृत्तिनिर्वाणं स्वास्थ्यमित्यर्थः परमं–प्रकृष्टम्।'
यद्वा निर्वाणमिति जीवन्मुक्तिम्।'–बृहवृत्ति, पत्र १८६ (ग) प्रशमरति, श्लोक २३८ (घ) सुखबोधा, पत्र ७६ (घ) तणसंथारणिसण्णो वि मुणिवरो भट्ठरायमयमोहो
जं पावइ मुत्तिसुहं कत्तो तं चक्कवट्टी वि॥ -सुखबोधा, पत्र ७६ २. (क) बृहवृत्ति, पत्र १८६
'स च न तथा तृणादिभिर्दीप्यते यथा घृतेनेति अस्य घृतसिक्तस्य निर्वृत्तिरनुगीयते।' (ख) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० ९९
तृण-तुष-पलाल-करीषादिभिरिंधनविशेषैरिध्यमानो न तथा दीप्यते यथाघृतेनेत्यतोऽनुमानात् ज्ञायते यथा घृतेनाभिषिक्तोऽधिकं भाति।