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________________ तृतीय अध्ययन : चतुरंगीय ६३ १२. सोही उजुयभूयस्स धम्मो सुद्धस्स चिठ्ठई। निव्वाणं परमं जाइ घय-सित्त व्व पावए॥ [१२] जो ऋजुभूत (सरल) होता है , उसे शुद्धि प्राप्त होती है और जो शुद्ध होता है उसमें धर्म ठहरता है। (जिसमें धर्म स्थिर है, वह) घृत से सिक्त (-सींची हुई) अग्नि की तरह परम निर्वाण (विशुद्ध आत्मदीप्ति) को प्राप्त होता है। १३. विगिंच कम्मुणो हेउं जसं संचिणु खन्तिए। पाढवं सरीरं हिच्चा उड्ढं पक्कमई दिसं॥ [१३] (हे साधक!) कर्म के हेतुओं को दूर कर, क्षमा से यश (यशस्कर विनय अथवा संयम) का संचय कर। ऐसा साधक ही पार्थिव शरीर का त्याग करके ऊर्ध्वदिशा (स्वर्ग या मोक्ष) की ओर गमन करता है। विवेचन–चतुरंगप्राप्ति : अनन्तरफलदायिनी-(१) चारों अंगों को प्राप्त प्रशस्त तपस्वी नये कर्मों को आते हुए रोक कर अनाश्रव (संवृत) होता है, पुराने कर्मों की निर्जरा करता है, (२) चतुरंगप्राप्ति के बाद मोक्ष के प्रति सीधी—निर्विघ्न प्रगति होने से शुद्धि-कषायजन्य कलुषता का नाश होती है। शुद्धिविहीन आत्मा कषायकलुषित होने से धर्मभ्रष्ट भी हो सकता है, परन्तु जब शुद्धि हो जाती है, तब उस आत्मा में धर्म स्थिर हो जाता है धर्म में स्थिरता होने पर घृतसिक्त अग्नि की तरह तप-त्याग एवं चारित्र से परम तेजस्विता को प्राप्त कर लेता है। (३) अतः कर्म के मिथ्यात्वादि हेतुओं को दूर करके जो साधक क्षमादि धर्मसम्पति से यशस्कर संयम की वृद्धि करता है, वह इस शरीर को छोड़ने के बाद सीधा ऊर्ध्वगमन करता है—या तो पंच अनुत्तर विमानों में से किसी एक में या फिर सीधा मोक्ष में जाता है । यह चतुरंगप्राप्ति का अनन्तर-आसन्न फल निव्वाणं परम जाइ : व्याख्या-(१) चूर्णिकार के अनुसार निर्वाण का अर्थ मोक्ष है, (२-३) शान्त्याचार्य के अनुसार इसके दो अर्थ हैं- स्वास्थ्य अथवा जीव-मुक्ति। स्वास्थ्य का अर्थ है-स्व (आत्मा) में अवस्थिति-आत्मरमणता । कषायों से रहित शुद्ध व्यक्ति में जब धर्म स्थिर हो जाता है, तब आत्मस्वरूप में उसकी अवस्थिति सहज हो जाती है। स्व में स्थिरता से ही साधक में उत्तरोत्तर सच्चे सुख की वृद्धि होती है। आगम के अनुसार एक मास की दीक्षापर्याय वाला श्रमण व्यन्तर देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर जाता है। आत्मस्थ साधक चक्रवर्ती के सुखों को भी अतिक्रमण कर जाता है। इस प्रकार के परम उत्कृष्ट स्वाधीन सुख का अनुभव आत्मस्वरूप या आत्मगुणों में स्थित को होता है, यही स्वस्थता निर्वृत्ति (परम सुख की स्थिति) अथवा इसी जीवन में मुक्ति (जीवन्मुक्ति) है, जिसका स्वरूप 'प्रशमरति' में बताया गया है "निर्जितमदमदनानां, वाक्कायमनोविकाररहितानाम्। विनिवृत्तपराशानामिहैव मोक्षः सुविहितानाम्॥' अर्थात्-जिन सुविहित साधकों ने आठ मद एवं मदन (काम) को जीत लिया है, जो मन-वचन१. (क) बृहद्वृत्ति, पत्र १८६ (ख) उत्तराध्ययन प्रियदर्शिनीव्याख्या, अ० ३, पृ० ७९०
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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