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________________ ६२ उत्तराध्ययन सूत्र [७] गोष्ठामाहिल- आचार्य आर्यरक्षित ने दुर्बलिकापुष्यमित्र को योग्य समझकर जब अपना उत्तराधिकारी आचार्य घोषित कर दिया तो गोष्ठामाहिल ईर्ष्या से जल उठा। एक बार आचार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र जब अपने शिष्य विन्ध्यमुनि को नौंवे पूर्व—प्रत्याख्यानप्रवाद की वाचना दे रहे थे तब पाठ आया—पाणाइवायं पच्चक्खामि जावजीवाए, इस पर प्रतिवाद करते हुए गोष्ठामाहिल बोले—'जावज्जीवाए' यह नहीं कहना चाहिए, क्योंकि ऐसा कहने से प्रत्याख्यान सीमित एवं सावधिक हो जाता है एवं उसमें भविष्य में मारूंगा' ऐसी आकांक्षा भी संभव है। आचार्यश्री ने समझाया—इस प्ररूपणा में उत्सूत्रप्ररूपणादोष, मर्यादाविहीन, कालावधिरहित होने से अकार्यसेवन तथा भविष्य में देवादि भवों में प्रत्याख्यान न होने से व्रतभंग का दोष लगने की आशंका है। 'यावज्जीव' से मनुष्यभव तक ही गृहीत व्रत का निरतिचाररूप से पालन हो सकता है। इस प्रकार समझाने पर भी गोष्ठामाहिल ने अपना दुराग्रह नहीं छोड़ा तो संघ ने शासनदेवी से विदेहक्षेत्र में विहरमान तीर्थंकर से सत्य का निर्णय करके आने की प्रार्थना की। वह वहाँ जाकर संदेश लाई कि जो आचार्य कहते हैं, वह सत्य है, गोष्ठामाहिल मिथ्यावादी निह्नव है। फिर भी गोष्ठामाहिल न माना तब संघ ने उसे बहिष्कृत कर दिया। इस प्रकार गोष्ठामाहिल सम्यक्-श्रद्धाभ्रष्ट हो गया। इसी कारण शास्त्र में कहा गया है कि श्रद्धा परम दुर्लभ है। संयम में पुरुषार्थ की दुर्लभता १०. सुइं च लभुं सद्धं च वीरियं पुण दुल्लहं। बहवे रोयमाणा वि नो एणं पडिवजए॥ [१०] धर्मश्रवण (श्रुति) और श्रद्धा प्राप्त करके भी (संयम में) वीर्य (पराक्रम) होना अति दुर्लभ है। बहुत-से व्यक्ति संयम में अभिरुचि रखते हुए उसे सम्यक्तया अंगीकार नहीं कर पाते। विवेचन-संयम से पुरुषार्थ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं दुर्लभ- मनुष्यत्व, धर्मश्रवण एवं श्रद्धा युक्त होने पर भी अधिकांश व्यक्ति चारित्रमोहनीयकर्म के उदय से संयम–चारित्र में पुरुषार्थ नहीं कर सकते। वीर्य का अभिप्राय यहाँ चारित्रपालन में अपनी शक्ति लगाना है, वही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं दुर्लभ है। वही कर्मरूपी मेघपटल को उड़ाने के लिए पवनसम, मोक्षप्राप्ति के लिए विशिष्ट कल्पवृक्षसम, कर्ममल को धोने के लिए जल-तुल्य, भोगभुजंग के विष के निवारणार्थ मंत्रसम है।२ दुर्लभ चतुरंगप्राप्ति का अनन्तरफल ११. माणुसत्तंमि आयाओ जो धम्म सोच्च सद्दहे। तवस्सी वीरियं लधुं संवुडे निधुणे रयं॥ [११] मनुष्यदेह में आया हुआ (अथवा मनुष्यत्व को प्राप्त हुआ)जो व्यक्ति धर्म-श्रवण करके उस पर श्रद्धा करता है, वह तपस्वी (मायादि शल्यत्रय से रहित प्रशस्त तप का आराधक), संयम में वीर्य (पुरुषार्थ या शक्ति) को उपलब्ध करके संवृत (आश्रवरहित) होता है तथा कर्मरज को नष्ट कर डालता है। १. (क) बृहवृत्ति, पत्र १८५ (ख) उत्तराध्ययनचूर्णि, पृ० ९८ (ग) सुखबोधा, पत्र ६९-७५ (घ) आवश्यकनियुक्ति, मलयगिरिवृत्ति, पत्र ४०१ २. (क) उत्तराध्ययन प्रियदर्शिनी व्याख्या, अ० ३, पृ० ७८८ (ख) बृहद्वृत्ति, पत्र १८६
SR No.003466
Book TitleAgam 30 Mool 03 Uttaradhyayana Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1984
Total Pages844
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Principle, & agam_uttaradhyayan
File Size16 MB
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